संघ और राजनीति
'संघ और राजनीति' इस शीर्षक का लेख लिखने के लिए मुझे प्रवृत्त किया, दि. 13 जून के 'इंडियन एक्सप्रेस' इस विख्यात अंग्रेजी दैनिक के संपादकीय लेख ने. 'इंडियन एक्सप्रेस' के उस लेख का शीर्षक है "Coming Out". हिंदी में उसका अनुवाद होगा 'प्रकटीकरण'. और भी एक कारण घटित हुआ. वह यह की 13 जून को ही Times Now चॅनेल के मुंबई के प्रतिनिधि मुझसे मिलने आये और उन्होंने 'संघ और राजनीति' इस विषय पर मेरी मुलाकात ली. रविवार 16 जून को, 'टाईम्स नाऊ' एक घंटे की 'पॉलिटिक्स' शीर्षक से चर्चा प्रसारित करनेवाला है. उस संदर्भ में ही यह मुलाकात थी.
लेख का कारण'इंडियन एक्सप्रेस'के संपादकीय का मथितार्थ ऐसा है की संघ खुलकर राजनीति में उतरे. संघ ने स्वयं के बारे में अराजनीतिक होने की काल्पनिक कहानी (fiction) त्याग देनी चाहिए. भाजपा के लिए नागपुर (अर्थात् रा. स्व. संघ) वैसे ही है जैसे काँग्रेस के लिए 10 जनपथ (अर्थात् श्रीमती सोनिया गांधी का निवासस्थान) है. संघ को उपदेश देने का अधिकार सभी को है. इस कारण 'इंडियन एक्सप्रेस'ने ऐसा लिखने में अनुचित कुछ भी नहीं. लेकिन, इस उपदेश से, संघ के बारे में उनका अज्ञान और संभ्रम ही प्रकट होता है, यह वे भी विचारपूर्वक ध्यान में ले, इसलिए यह लेखप्रपंच.
'राष्ट्र' का अर्थयह सच है कि, संघ मतलब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, यर्थाथ में समझ लेना कुछ कठिन है. कारण सार्वजनिक जीवन में जो अनेक संस्था कार्यरत है, उनके ढाँचे में संघ नहीं बैठता. लोगों के ध्यान में यह नहीं आता कि, संघ संपूर्ण समाज का संगठन है. समाजांतर्गत एक संगठित टोली नहीं. समाज व्यामिश्र (complex) होता है. मतलब उसने जीवन के अनेक क्षेत्र होते है. राजनीति या राजनीतिक क्षेत्र उनमें से एक क्षेत्र है. एकमात्र क्षेत्र नहीं. धर्म. शिक्षा, अर्थ, श्रम, उद्योग, कृषि, आरोग्य, विज्ञान, साहित्य, ऐसे अनेक क्षेत्र है. उसी प्रकार वनवासी, मजदूर, विद्यार्थी, शिक्षक, अधिवक्ता, डॉक्टर-वैद्य, आदि अपने समाज के विविध घटक है. संपूर्ण समाज के संगठन का अर्थ इन सब समाजक्षेत्रों और समाजघटकों का संगठन. इसका ही नाम राष्ट्रीय संगठन है. कारण राष्ट्र मतलब केवल राज्यव्यवस्था नहीं होता. राष्ट्र मतलब लोग है. People are the Nation यह सब को पता ही है.
सांस्कृतिक राष्ट्रवादकिस जनसमूह का राष्ट्र बनता है, इसके बारे में कुछ निश्चित धारणाएँ है. मुख्य तीन धारणाएँ है. (1) जिस देश में हम रहते है, उस भूमि के विषय में हमारी भावना. (2) हमारा पूर्वजों के संबंधी ज्ञान और उनके साथ हमारा संबंध और उस जनसमूह का जो इतिहास होता है, वह उस समूह को अपना इतिहास लगना चाहिए. इतिहास में सब विजय और अभिमान के ही प्रसंग होते है, ऐसा नहीं. पराजय और लज्जा के भी प्रसंग होते है. वह सबको अपने यशापयश और अभिमान-लज्जा के प्रसंग लगने चाहिए (3) और सबसे महत्त्व की बात यह है कि, अच्छा-बुरा तय करने के समाज के मापदंड; मतलब उसकी मूल्यधारणा (Value system). यह मूल्यधारणा मतलब संस्कृति होती है; और संघ इसे अपने राष्ट्रीयत्व का आधार मानता है. इस कारण हम कहते है कि, हमारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है. ऊपर बताई तीन धारणाएँ धारण करनेवाले लोगों का सर्वपरिचित नाम 'हिंदू' होने के कारण यह हिंदूराष्ट्र है. हिंदू एक रिलिजन या मजहब नहीं. अनेक रिलिजन्स को अपने में समा लेनेवाला वह एक महासागर है. डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् या अन्य किसी ने कहा है कि, Hinduism is not a religion, it is a commonwealth of many religions. हम 'धर्म' शब्द का अनुवाद 'रिलिजन' करते है. इस कारण बहुत बड़ा वैचारिक संभ्रम निर्माण होता है. हमारे नित्य के व्यवहार में के कुछ शब्द लें, जैसे धर्मशाला, धर्मार्थ दवाखाना, धर्मकाटा, राजधर्म, पितृधर्म इत्यादी और इन सब शब्दों के 'धर्म' शब्द के लिए 'रिलिजन' या 'रिलिजस' विकल्प का प्रयोग करके देखे और जो मजा आएगी उसका आनंद लें.
अर्नेस्ट रेनाँ का प्रतिपादनयहाँ मुझे अर्नेस्ट रेनाँ इस फ्रेंच लेखक का वचन उद्धृत करने का मोह होता है. वह वचन है.
"The soil provides the substratum, the field for struggle and labour, man provides the soul. Man is everything in the formation of this sacred thing that we call a people. Nothing that is material suffices here. A nation is a spiritual principle, the result of the intricate workings of history, a spiritual family and not a group determined by
the configuration of the earth."रेनाँ आगे कहता है –
"Two things which are really one go to make this soul or spiritual principle. One of these things lies in the past, the other in the present. The one is the possession in common of a rich heritage of memories and the other is actual agreement, the desire to live together and the will to make the most of the joint inheritance. Man cannot be improvised. The nation like the individual is the fruit of a long past spent in toil, sacrifice and devotion."
तात्पर्य यह कि संघ का रिश्ता संपूर्ण राष्ट्रकारण से है; और राजनीति भी राष्ट्रकारण का ही एक अंश होने के कारण राजनीति से भी उसका संबंध है. वह आज का नहीं. बहुत पुराना है. संघ जिन्होंने स्थापन किया उन डॉ. हेडगेवार जी ने संघस्थापना के बाद सन् 1930 में जंगल सत्याग्रह में भाग लेकर कारावास भोगा था; और आपात्काल समाप्त करने के लिए जो विशाल सत्याग्रह हुआ था, उस सत्याग्रह में संघ ने मतलब संघ के स्वयंसेवकों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था. ये दोनों राजनीतिक आंदोलन थे. लेकिन उनका संबंध राष्ट्रजीवन के साथ था.
विशिष्ट कार्यपद्धतिसंघ की एक विशिष्ट कार्यपद्धति है. जिस क्षेत्र का संगठन होना चाहिए, ऐसा उसे लगता है, उस क्षेत्र के लिए वह कार्यकर्ता देता है. कुछ क्षेत्रों के बारे में अगुवाई अन्य की रही है और संघ ने उन्हें कुछ कार्यकर्ता दिये है. भारतीय जनसंघ डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने स्थापन किया. उसके लिए संघ ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटलबिहारी बाजपेयी, नानाजी देशमुख, सुंदरसिंग भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे, डॉ. महावीर त्यागी आदि श्रेष्ठ कार्यकर्ता दिये. इनमें से डॉ. महावीर त्यागी के अलावा अन्य सब संघ के पूर्णकालीन कार्यकर्ता थे. डॉ. मुखर्जी के अकाल निधन के कारण, पार्टी चलाने और उसके विस्तार की जिम्मेदारी इन लोगों पर आ पड़ी और उन्होंने वह अच्छी तरह से निभाई. 1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय होने के बाद, जनसंघ एक प्रकार से समाप्त हो गया. लेकिन जनता पार्टी के कार्यकर्ता संघ के
स्वयंसेवक नहीं रह सकेगे, ऐसी लहर उस पार्टी में निर्माण होने के कारण, संघ के साथ संबंध बना रहे, ऐसा माननेवाले स्वयंसेवक उसमें से बाहर निकले और सन् 1980 में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की. जनता पार्टी से बाहर निकलकर भाजपा की स्थापना में आगे रहनेवाले संघ के स्वयंसेवक थे. संघ की कार्यपद्धति की यह विशेषता है की, संबंधित क्षेत्र के कार्यकर्ता ही वह क्षेत्र चलाए और वृद्धिंगत करे. इस दृष्टि से हर क्षेत्र स्वतंत्र और स्वायत्त है. मतलब उनका स्वतंत्र संविधान होता है. संस्था के लिए आवश्यक निधि जमा करने की उनकी अपनी पद्धति होती है. कोई भी क्षेत्र निधि के लिए संघ पर निर्भर नहीं होता. मुझे यह अहसास है कि अन्य क्षेत्रों की चर्चा यहाँ अप्रस्तुत होगी. तथापि, यह बताना ही चाहिए कि, वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना श्री बाळासाहब देशपांडे नाम के सरकारी अधिकारी ने की थी. उन्हें संघ ने आरंभ में दो कार्यकर्ता दिये थे. भारतीय मजदूर संघ की स्थापना दत्तोपंत ठेंगडी इस संघ के कार्यकर्ता ने की; तो विश्व हिंदू परिषद की स्थापना में तत्कालीन सरसंघचालक श्री मा. स. गोळवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी की अगुआई थी. लेकिन वे विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष नहीं बने. पद के आकर्षण से कार्य आरंभ करनेवालों को श्रीगुरुजी का यह वर्तन अनोखा और अनाकलनीय लगेगा, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं.
स्वतंत्र और स्वायत्तसंघ क्या करता है? वह शुरु में कार्यकर्ता देता है. वे कार्यकर्ता, संबंधित क्षेत्र में स्वायत्तत्ता से काम करते है. कभी कभार संघ के साथ परामर्श होता ही है. संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में सब क्षेत्रों की प्रातिनिधिक उपस्थिति रहती है. लेकिन इसका अर्थ, संघ उनके पदाधिकारियों का चुनाव करता है, ऐसा करना अनुचित होगा. क्या सियासी पार्टी अपने पदाधिकारी कौन होगे यह निश्चित करती है? इन पदाधिकारियों में संघ ने अधिकृत रूप से दिया हुआ कार्यकर्ता भी हो सकता है. लेकिन निर्णय संबंधित संगठन का होता है. किस मतदार संघ से लोकसभा का उम्मीदवार कौन हो, यह संघ नहीं बताता. किस प्रान्त का भाजपा का अध्यक्ष कौन होगा यह भी संघ नहीं तय करता. क्या 10 जनपथ ऐसा ही करता है, यह 'इंडियन एक्सप्रेस'के विद्वान संपादक बताए और फिर तुलना करें. किसी विशिष्ट संदर्भ में, संबंधित क्षेत्र के लोग संघ के अधिकारियों के साथ सलाह-मश्वरा करते है. लेकिन निर्णय उनका ही होता है. लेकिन संघ की इतनी अपेक्षा निश्चित ही होती है कि, संबंधित संगठन अपने संगठन से राष्ट्र को बड़ा माने. मतलब समाज और समाज की मूल्यव्यवस्था को श्रेष्ठ माने. सही कहे या गलत, लेकिन संघ यह बताता है कि, व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं, संगठन श्रेष्ठ है, और संगठन से भी राष्ट्र श्रेष्ठ है. संघ में ऐसी ही पद्धति है. इसलिए संघ में 'डॉ. हेडगेवार की जय' या 'श्रीगुरुजी की जय' जैसे घोष-वाक्य नहीं है. संघ का एक ही घोष-वाक्य है और वह है 'भारत माता की जय'. इसका तात्पर्य समझना कठिन नहीं लगना चाहिए, ऐसा मुझे लगता है.
अडवाणी प्रकरणअब अभी का ताजा प्रकरण, श्री लालकृष्ण अडवाणी के त्यागपत्र का. उस त्यागपत्र का सही कारण वे ही बता सकेगे. उन्होंने अपने त्यागपत्र में पार्टी से कुछ अपेक्षाएँ व्यक्त की है. वे अपेक्षाएँ ठीक ही है. उनका त्यागपत्र अचानक आने के कारण सब को धक्का लगा. सरसंघचालक को भी लगा होगा. मेरी ऐसी जानकारी है कि, भाजपा के ही किसी वरिष्ठ नेता ने इसकी जानकारी सरसंघचालक जी को दी और वे अडवाणी जी से बात करे, ऐसा सूचित किया. प्रथम दूरध्वनि किसने किया? अडवाणी जी या भागवत जी ने? ऐसे प्रश्न उपस्थित करने में कोई मतलब नहीं. भाजपा में संकट निर्माण हुआ है, वह दूर हो, ऐसा ही भाजपा के सब हितचिंतकों को लगता होगा. अन्यथा, भाजपा के संसदीय मंडल ने अडवाणी जी का त्यागपत्र तुरंत मंजूर कर प्रश्न वही सदा के लिए समाप्त किया होता. लेकिन उन्होंने त्यागपत्र मंजूर नहीं किया. कारण उन्हें निश्चित ही ऐसा लगा होगा कि, अडवाणी जी जैसे वयोवृद्ध, अनुभवसमृद्ध, ज्येष्ठ नेता ने पार्टी में रहना चाहिए और उसी दृष्टि से किसी ने सरसंघचालक जी से अडवाणी जी के साथ बात करने की बिनति की होगी. इसमें अनुचित क्या है? अपने कार्यकर्ता चला रहे कार्य सही तरीके से चलते रहे, उसमे मतभेद होने पर भी मनभेद न हो, क्या ऐसा लगना स्वाभाविक नहीं?
संघ का निर्धार'इंडियन एक्सप्रेस'के संपादक ने उपदेश किया है कि, संघ खुलकर राजनीति में आये. लेकिन संघ वह उपदेश मान्य नहीं करेगा. कारण उसे राजनीति की अपेक्षा राष्ट्रकारण महत्त्व का लगता है; और राजनीति ने भी राष्ट्रकारण का श्रेष्ठत्व मान्य करना चाहिए, ऐसी संघ की अपेक्षा है. चुनाव की राजनीति में उतरने से कोई भी संघ को रोक नहीं सकता. लेकिन राजनीति जैसे समाजजीवन के एक क्षेत्र के साथ एकरूप नहीं होना, यह संघ की भूमिका है और निर्धार भी है. हमारे शास्त्र में आत्मतत्त्व या प्राणतत्त्व का संपूर्ण ऐहिक जीवन के साथ जो और जैसा संबंध होता है, वैसा संघ का इन सब क्षेत्रों के साथ है. इस कारण, वह उन सब क्षेत्रों से संबंद्ध भी है और संबंद्ध नहीं भी. ईशोपनिषद् आत्मतत्त्व के इस ऊपरी परस्परविरुद्ध वर्तन का इस प्रकार वर्णन करता है –
तदेजति तनैजति। तद् दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य। तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:।
इस मंत्र का सरल अर्थ है - ''वह हलचल करता है, और वह हलचल नहीं करता. वह दूर है और वह पास है. वह सबके भीतर है और वह सबके बाहर है.''
संघ, अपने नाम के 'राष्ट्रीय' इस आद्यपद के साथ सुसंगत, राष्ट्रजीवन के आत्मतत्त्व के अनुसार कहे अथवा प्राणतत्त्व के समान है.
- मा. गो. वैद्य
नागपुर, दि. 14-06-2013
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Monday, June 17, 2013
संघl और राजनीति from M G Vaidya
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