Wednesday, June 12, 2013

from M G Vaidya


 

अंतर्गत सुरक्षा की समस्या

किसी भी राज्यव्यवस्था का कर्तव्य, बाहरी आक्रमण से अपनी प्रजा की रक्षा करना होता है. प्रजा का सुख ही राजा का सुख और प्रजा का हित ही राजा का हित - ऐसा आर्य चाणक्य ने बहुत पहले बताया है. प्रजा के सुख और हित को दो स्थानों से खतरा होता है. खतरे का एक स्थान कोई दूसरे देश हो सकते है; तो दूसरा स्थान अपने ही राज्य के चोर, डकैत, हत्यारें या उनका समूह हो सकता है. पहला प्रकार बाह्य शत्रु का है, तो दूसरा प्रकार उसी देश में रहनेवाले लोगों की ओर से मतलब अंतर्गत शत्रुओं से संभव है. प्रस्तुत लेख में हम अतंर्गत लोगों की ओर से निर्माण होनेवाले खतरे का विचार करेंगे.

 

दो आतंकवाद

हम किसी भी तात्त्विक या काल्पनिक खतरे का विचार नहीं करेंगे. आज हमारे देश में जो परिस्थिति है, उसके संदर्भ में इस समस्या का विचार करेंगे. चोर, डकैत, हत्यारों का बंदोबस्त करना वैसे आसान होता है. कानून और सुरक्षा के पालन की जिम्मेदारी जिस व्यवस्थापर होती है, वह व्यवस्था मतलब राज्य का पुलीस विभाग, इसके लिए होता है. चोर, डकैतों की कोई एक टोली हो सकती है. उस टोली का बंदोबस्त करने का कर्तव्य, हमारा पुलीस विभाग पूरी ताकत से कर रहा है. ऊपर बताया ही है कि, यह काम आसान होता है. कारण इन टोलियों की शक्ति मर्यादित होती है. वे अन्य किसी के एजंट बनकर काम नहीं करते. अपना स्वार्थ ही उनके हिंसक कृत्य का प्रयोजन होता है. लेकिन, हमारे देश में, बाहर से मतलब हमारे देश के बाहर से, हमारे देश के शत्रु से जिन्हें प्रेरणा, मदद और प्रोत्साहन मिलता है, ऐसे दो हिंसक समूह है. दो प्रवाह है. दोनों प्रवाह, अपना हेतु साध्य करने के लिए हिंसा का आधार लेते है. हम उन्हें आतंकवादी या दहशतवादी कहते है. कारण उन्हें हिंसा द्वारा ही दहशत निर्माण कर, अपने प्रेरणास्त्रोतों का लाभ करा देना होता है. इनमें से एक प्रवाह का नाम जिहादी आतंकवाद है, तो दूसरे प्रवाह का नाम माओवादी आतंकवाद है.

 

जिहादी आतंकवाद

जिहादी आतंकवाद निर्माण करनेवाले मुसलमान होते हे. सब मुसलमान जिहादी आतंकवादी नहीं है. लेकिन जो जिहादी आतंकवादी है, वे सब मुसलमान मतलब इस्लाम को माननेवाले है.

 

इस्लाम में निष्ठावान मुसलमानों का 'जिहाद' पवित्र कर्तव्य माना गया है. 'जिहाद' का पूरा नाम 'जिहाद फि सबिलिल्लाह' है. अरबी भाषा में इस शब्दावली का अर्थ 'अल्लाह के मार्ग के लिए प्रयत्न' है, ऐसा जानकार लोग बताते है. अल्लाह के मार्ग के लिए प्रयत्न, अर्थात् ही पवित्र होगा. इस कारण जिहाद के साथ एक प्रकार की पवित्रता चिपकी है. 'अल्लाह'का मार्ग मतलब अल्लाह का राज्य फैलाने का मार्ग. इस ध्येय से प्रेरित होकर ही, पैगंबर साहब के अरबस्थान के अनुयायियों ने बहुत बड़ा पराक्रम किया था और केवल एक सदी में, संपूर्ण पश्‍चिम एशिया, उत्तर अफ्रीका और दक्षिण यूरोप को इस्लामी बना डाला था. इस पराक्रम की प्रेरणा 'जिहाद' ही थी. सेना के बल पर यह पराक्रम करने और उसके द्वारा सफलता करने के कारण, जिहाद और हिंसा के बीच अटूट नाता निर्माण हुआ है. ऐसा कहते है कि, पवित्र कुरान में दूसरा भी एक जिहाद बताया गया है. उसका नाम है 'अल्-जिहादुल्-अकब्बर'. अपने मन के कामक्रोधादि विकारों के साथ युद्ध, यह उसका अर्थ है. अर्थात् यह कोई समस्या होने का कारण नहीं. हिंसाचार के साथ और सही में क्रूरता के साथ जिनकी जड़ें जुड़ी है उनके ही संदर्भ में यह विवेचन है. पावित्र्य और क्रूरता का साथ किसे भी विचित्र ही लगेगा. लेकिन इस्लामी 'जिहाद'में वह होता ही है. 'जिहाद' शौर्य और क्रौर्य में भेद नहीं करता.

 

पाकिस्तान की हताशा

हम जानते है की, १५ ऑगस्त १९४७ को हमारा देश स्वतंत्र हुआ. लेकिन उसके साथ ही हमारे देश का विभाजन भी हुआ. मुसलमानों की बहुसंख्या के प्रदेश का पाकिस्तान नाम का नया राज्य बना. वह आज भी है. लेकिन १४ अगस्त को जितना प्रदेश मिला, उससे पाकिस्तान का समाधान नहीं है. उन्हें जम्मू-कश्मीर की रियासत भी पाकिस्तान में चाहिए थी. लेकिन जम्मू-कश्मीर के महाराज ने वह रियासत भारत में विलीन की. इंग्लँड के जिस कानून से, भारत और पाकिस्तान इन राज्यों की निर्मिति हुई, उसी कानून से, तत्कालीन रियासतों के राजाओं को, भारत में या पाकिस्तान में विलीन होने की या स्वतंत्र रहने की अनुमति भी मिली थी. यह बात पाकिस्तान को हजम नहीं हुई. फौज के बल पर जम्मू-कश्मीर का प्रदेश जीतकर पाकिस्तान में शामिल करने के लिए, उसने जम्मू-कश्मीर पर हमला किया. इस आक्रमण का मुकाबला महाराजा की सेना कर नहीं पाई, इसलिए महाराज ने भारत से मदद मांगी और इसके लिए अपना राज्य भारत में विलीन किया. फिर अधिकृत रूप से भारत की सेना जम्मू-कश्मीर में आई और उसने अपने पराक्रम से पाकिस्तान का आक्रमण विफल कर दिया. संपूर्ण जम्मू-कश्मीर ही पाकिस्तान से मुक्त हो जाता, लेकिन उस समय के हमारे मतलब भारत के शासकों को दुर्बुद्धि सुझी और वे यह मामला अकारण संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गए; राष्ट्रसंघ ने एक प्रस्ताव पारित कर 'जैसे थे' स्थिति कायम रखी. इस कारण अभी भी जम्मू-कश्मीर का करीब इक तिहाई भाग पाकिस्तान के कब्जे में है.

 

हमलें

पाकिस्तान तो संपूर्ण जम्मू-कश्मीर हथियाना चाहता था. इसलिए उसने १९६५ में पुन: आक्रमण का मार्ग अपनाया. लेकिन इस बार भी उसका इरादा सफल नहीं हुआ. फिर 'जैसे थे' स्थिति ही कायम रही. फिर दूसरे ही मुद्दे पर १९७१ में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ. उसमें पाकिस्तान पूरी तरह से पराजित हुआ. तब पाकिस्तान के ध्यान में आया की, आमने-सामने के युद्ध में वह भारत को हरा नहीं सकता. इसलिए उसने, भारत के ही कुछ लोगों को बहकाकर, उन्हें फौजी प्रशिक्षण देकर, हथियार और पैसा देकर भारत में घातपात करने के लिए प्रेरित किया. पाकिस्तान द्वारा पोषित इन समूहों के नाम लष्कर-ए-तोयबा, मुजाहिद्दीन, हुजी, सीमी आदि अलग-अलग होने पर भी, उन सब का उद्दिष्ट एक ही है; और वह भारत को लहुलुहान स्थिति में रखना है. १९९३ को मुंबई में हुए विस्फोट से संसद पर हुए हमले तक या २००८ में ताजमहल होटल पर हुए बम हमले से हाल ही हैद्राबाद के (२१ फरवरी २०१३) और बंगलूर के बम विस्फोट तक (१७ अप्रेल २०१३) के सब जिहादी हमले पाकिस्तान की प्रेरणा से, पाकिस्तान ने दिए प्रशिक्षण और उसकी ही सहायता से हुए है.

 

घर के भेदी

इस जिहादी आतंकवाद को आश्रय देनेवाले हमारे देश में ही है. संजय दत्त का मामला इतना ताजा है की, उसका पुन: स्मरण करा देना आवश्यक नहीं. संजय दत्त स्वयं बम विस्फोट कराने में शामिल नहीं था, लेकिन इन जिहादी आतंकवादियों के हथियार रखने के लिए उसने अपने बंगले का उपयोग करने दिया. उसके बदले उसने एक एके - ५६ बंदूक अपने पास रख ली. संजय में थोड़ी भी देशभक्ति होती, तो उसने इस हिंस्त्र कार्य के लिए अपना घर दिया ही नहीं होता, और पुलीस को इसकी जानकारी दी होती. यह वस्तुस्थिति है कि, ऐसे देशद्रोही अपने ही देश में है. १९४६ में, हमारे देश में जो चुनाव हुए थे, उस चुनाव में मुस्लिम लीग का मुद्दा पाकिस्तान निर्मिति का था. मुसलमानों के लिए उस समय विभक्त सुरक्षित मतदारसंघ थे. इन मतदारसंघों में विभाजन की पक्षधर मुस्लिम लीग को ८५ प्रतिशत मुसलमानों ने मत दिये थे. वे मत, आज जो भारत है, उस प्रदेश के मुसलमानों के थे. वे पाकिस्तानवादी मुसलमान पाकिस्तान में नहीं गये. यही भारत रहे. उनके वंशज हमारे देश में है. उनमें से अनेकों का हृदयपरिवर्तन निश्‍चित ही हुआ होगा. लेकिन कुछ की वही मानसिकता होगी इसमें संदेह नहीं.

 

रामबाण उपाय

इस जिहादी आतंकवाद का बंदोबस्त करना वैसे तो कठिन नहीं. लेकिन हमारे शासक और अनेक सियासी पार्टियाँ ढोंगी सेक्युरलवाद से ऐसी ग्रस्त है की, वे मुसलमानों को राष्ट्रीय मुख्य प्रवाह में लाने के मार्ग में अडंगे निर्माण कर रही है. हमारे यहाँ जनतंत्र है. हर एक को एक मत है. हर मत का मूल्य समान है. फिर भी मुसलमानों को खुश करने के लिए अलग कानून और प्रावधान है. सब के लिए समान फौजदारी कानून है. लेकिन समान नागरी कानून नहीं. अब तो मुसलमान अपराधियों के लिए स्वतंत्र न्यायालय स्थापन करने की बात की जा रही है. १९४६ में जिन १५ प्रतिशत मुसलमानों ने विभाजन के विरुद्ध मतदान किया था, उन्हें ताकत देकर उनकी संख्या बढ़ाने के बदले सरकार की सब नीतियाँ विभाजन के पक्ष के ८५ प्रतिशत मुसलमानों की, उनके मतों के लिए, खुशामद करने की है. फिर मुसलमानों की मानसिकता कैसे बदलेगी? मुसलमानों में भी देशभक्त है. लेकिन उनके पास मुस्लिम समाज का नेतृत्व नहीं है. वह आना चाहिए. सरकार ने भी, 'हम सब का एक देश है, हम एक जन है, हमारी उपासनापद्धति भिन्न होते हुए भी हमारा एक राष्ट्र है', ऐसा भाव सब लोगों के मन में निर्माण करने के लिए कदम उठाने चाहिए. वैसी नीतियाँ बनानी चाहिए. इसमें भारत सरकार सफलता हासिल कर सकती है. केवल इच्छाशक्ति चाहिए, और मुख्य यह की हमारे संकुचित सियासी स्वार्थ से ऊपर उठना निश्‍चित करना चाहिए. पाकिस्तान द्वारा लादा गया यह जिहादी आतंकवाद का छद्मयुद्ध समाप्त करने का यही एकमात्र उपाय है. फौज और पुलीस उनका कर्तव्य निभाएगे ही. कमी सरकारी नीतियों की है. यहाँ के शिक्षित मुसलमान पाकिस्तान, अफगाणिस्थान, इरान, इराक, सीरिया आदि इस्लामी देशों की गतिविधियाँ देखते ही होगे. इन सब देशों में मुसलमान ही मुसलमानों के विरुद्ध लड़ रहे है. वस्तुत: हर किसी को शांत और सभ्य जीवन की ही आकांक्षा होगी. भारत के मुसलमान भी शांत और सभ्य जीवन ही चाहते होगे. उनकी इस मानसिकता की ओर सियासी पार्टियों का ध्यान होना चाहिए. ये लोग पाकिस्तान के एजंट बनकर काम नहीं करेगे, विपरित गद्दारों को सबक सिखाएंगे. हमारे देश की राजनीति की मुस्लिम खुशामद की दिशा बदलना यही इस जिहादी आतंकवाद पर रामबाण उपाय है. 'एक देश, एक जन, एक राष्ट्र' ही हमारे सब सामाजिक और सियासी क्रियाकलापों का नारा होना चाहिए.

 

वामपंथी आतंकवाद

जिहादी आतंकवाद को जैसे एक धार्मिक पृष्ठभूमि है, वैसी ही माओवादी आतंकवाद को एक बौद्धिक कहे या सैद्धांतिक पृष्ठभूमि है. नक्षली, माओवादी, ऐसे उनके अलग-अलग नाम है, लेकिन उनका प्रेरणास्त्रोत एक ही है. वह है साम्यवाद या कम्युनिझम्. साम्यवाद को जनतंत्र मान्य नहीं. उनका एकमात्र हथियार और विज्ञान, क्रांति है. और क्रांति कहने पर हिंसाचार आता ही है. १९१७ में रूस में हिंसाचार के माध्यम से ही क्रांति हुई. चीन में भी हिंसात्मक क्रांति हुई. चीन क्रांति के नेता माओ त्से तुंग थे. उनका आदर्श माननेवाले स्वयं को माओवादी कहने में गर्व महसूस करते है. क्रांति की यह लहर बंगाल के नक्षलबारी गाँव से निकली, इस कारण इन आतंकवादियों को 'नक्षली' विशेषण लगाया जाता है. उनका और भी एक नाम प्रचलित है. वह है 'पीपल्स वॉर ग्रुप' मतलब जनता के युद्ध के लिए तैयार समूह. उनका नाम ही बताता है कि वे युद्धरत है. इन में से कुछ समूहों को ईसाई चर्च की सहायता प्राप्त है. आंध्र प्रदेश में चंद्राबाबू नायडू के तेलगू देशम् पार्टी से सत्ता छीनने के लिए काँग्रेस ने इस 'पीपल्स वॉर ग्रुप'के साथ हाथ मिलाया था. उनकी सहायता से काँग्रेस ने तेलगू देशम् को पराजित किया. काँग्रेस के ये नेता थे वाय. एस. राजशेखर रेड्डी. वे ईसाई थे. इस उपकार के बदले सत्ता प्राप्त होते ही, राजशेखर रेड्डी के नेतृत्व की काँग्रेस सरकार ने इन आतंकवादियों के संगठन पर लगा प्रतिबंध हटा दिया था. आगे चलकर इस मुक्त भस्मासुर का हाथ अपने भी सिर पर पड़ेगा इसका अहसास होते ही, फिर उनपर प्रतिबंध लगाया गया.

 

उनकी आश्रय-भूमि

ये वामपंथी विचारधारा के क्रांतिप्रवण समूह, शहरों में सक्रिय नहीं होते. वे जंगल, पहाडों में सक्रिय होते है. कारण वहाँ उन्हें छिपना और गुप्त कारवाईयों की रूपरेखा बनाना आसान होता है. हमें स्वतंत्र होकर ६५ वर्ष होने के बाद भी, इन क्षेत्रों के लोगों के विकास की ओर शासकों ने आवश्यक ध्यान नहीं दिया. उनके अज्ञान का लाभ उठाकर स्वार्थी साहुकारों ने भी उन्हें खूब लूटा. इन वामपंथी आतंकवादियों ने उनके बीच अपने लिए आस्था निर्माण की, और उनका समर्थन हासिल किया. उनमें से ही उन्हें कार्यकर्ता भी मिले. हिंसाचार पर उनका विश्‍वास होने के कारण उन्हें हथियारों की आवश्यकता थी. वह भारत के पड़ोसी देशों ने पूरी की. इन आतंकवादियों के पास आधुनिक प्रगत हथियार भी है. वह उन्हें विदेशों से मिले है, इसमें संदेह नहीं. छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड इन एक-दूसरे से सटे राज्यों में उनकी शक्ति केंद्रित है. और इन राज्यों की सीमाओं से जुड़ा हुआ महाराष्ट्र का गढ़चिरोली जिला, तथा आंध्र प्रदेश के सीमावर्ती जिले भी आतंकवादग्रस्त है. इन प्रदेशों पर अपना स्वामित्व प्रस्थापित कर, अन्यत्र फैलाव के लिए एक 'लाल मार्ग' (Red Corridor) निर्माण करने का उनका इरादा है. इसका अर्थ यह है की, संपूर्ण भारत उनका आघातलक्ष्य है. एक दृष्टि से उनके बंदोबस्त के लिए यह सुविधाजनक भी है. उनकी केंद्र सरकार द्वारा घेराबंदी भी हो सकती है.

 

राज्यों के अहंकार

इन हिंसक समूहों की कारवाईयाँ, अलग-अलग राज्यों में होने के कारण, और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी संबंधित राज्यों की होने के कारण, उनकों जड़ से समाप्त करने की रणनीति सफल नहीं हो सकती. वस्तुत:, आतंकवाद की यह समस्या संबंधित राज्यों की ही नहीं. वह संपूर्ण भारतवर्ष की समस्या है. इसलिए इस समस्या के निराकरण के लिए केंद्र के ही अभिक्रम की आवश्यकता है. सौभाग्य से, विलंब से ही सही, केंद्र को इसका अहसास हुआ है. केंद्र सरकार ने एक 'नॅशनल इन्व्हेस्टिगेशन एजन्सी' (एनआयए)की निर्मिति की है. इसी प्रकार प्रत्यक्ष कारवाई के लिए 'नॅशनल काऊंटर टेररिझम् सेंटर' भी (एनसीटीसी) स्थापन करना निश्‍चित किया है. लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि, इस आतंकवादविरोधी केंद्र की स्थापना को आतंकवादग्रस्त राज्यों का ही विरोध है. उन्हें लगता है कि, हमारे अधिकारों पर यह अतिक्रमण है. यह बात इन राज्य सरकारों के ध्यान में नहीं आती की, यह संपूर्ण देश की समस्या है. इस आतंकवाद का सामना राज्य सरकारें सफलतापूर्वक नहीं कर सकती. वे ऐसा कर सकती, तो अब तक यह समस्या कायम ही नहीं रहती. केंद्र सरकार जो आतंकवादविरोधी केंद्र स्थापन करनेवाली है, उसे अपराध खोजना, अपराधियों की जाँच करना, उन्हें गिरफ्तार करना, उनके विरुद्ध मुकद्दमें चलाने के अधिकार होगे. यह अधिकार राज्यों के पास भी है. लेकिन आतंकवादी एक राज्य में कारवाई कर पड़ोस के राज्य में भाग सकते है, और भाग भी जाते है. वहाँ उनके समर्थक समूह होते ही है. इस स्थिति में जिस राज्य में आतंकवादी घटना घटित होती है, वह राज्य कुछ भी नहीं कर पाता. इसलिए उनके बंदोबस्त के अधिकार केंद्र के पास ही होने चाहिए.

 

बल-प्रयोग अपरिहार्य

हमारा संविधान 'फेडरल स्टेट'को मान्यता देता है और केंद्र की कारवाई इस फेडरॅलिझमपर आक्रमण है आदि अनेक राज्यों द्वारा किए जानेवाले युक्तिवाद फालतू है. संविधान में कहीं भी 'फेडरल' शब्द नहीं है. तथापि यह सब तात्त्विक चर्चा यहाँ अप्रस्तुत है. सबका उद्दिष्ट इस आतंकवाद को मिटाना ही होना चाहिए; और इसके लिए सबने केंद्र को मन से मदद करनी चाहिए. आवश्यक हो तो केंद्र ने छ: माह के लिए इन नक्षलग्रस्त अथवा माओग्रस्त प्रदेशों में आपात्काल की घोषणा करनी चाहिए. हमारे संविधान की धारा ३५२ इसके लिए केंद्र सरकार को अधिकार देती है. इस धारा के अंतर्गत देश के विशिष्ट प्रदेशों में भी आपात्काल लागू किया जा सकता है. इस आपात्काल में अर्धसैनिक बल या सेना का उपयोग करने में हरकत नहीं. इस समय में मानवाधिकार भी निलंबित किए जा सकते है. मानवाधिकार मानवों के लिए होते है; हिंस्त्र दानवों के लिए नहीं. यह कारवाई करते समय ही, नक्षलवादियों के भय से, उनके एजंट या समर्थक बने वनवासियों के विकास की योजनाएँ भी सरकार ने शुरू करनी चाहिए. इस दृष्टि से गढ़चिरोली जिले के पुलीस अधिकारी सुवेज हक के प्रयोग का मूल्यांकन कर, क्या व्यापक स्तर पर उसका अनुसरण उपयुक्त सिद्ध हो सकता है, इसकी जाँच करनी चाहिए.

 

तात्पर्य यह की, तथाकथित धार्मिक भावना पर हो अथवा अन्य सैद्धांतिक आधार पर हो, हिंसाचार से अपना उद्दिष्ट हासिल करने की इच्छा रखनेवालों का जड़ से सफाया किया जाना चाहिए. हमारे यहाँ जनतांत्रिक व्यवस्था है, जनसमर्थन प्राप्त कर सबको अपना उद्दिष्ट प्राप्त करने की स्वतंत्रता है. इस संवैधानिक मार्ग से ही सामाजिक हो या सियासी परिवर्तन किया जाना चाहिए. ऐसा वातावरण हमारे देश में निर्माण होना चाहिए.

 

मा. गो. वैद्य
नागपुर
babujivaidya@gmail.com

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