Thursday, June 20, 2013

नदियों की धारा बदलने का नतीजा उत्तराखंड की विनाशलीला


 

नदियों की धारा बदलने का नतीजा उत्तराखंड की विनाशलीला

सारे हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि एक दिन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाक़ों में सिर्फ़ बांध ही बांध नज़र आएंगे। नदियां सुरंगों में चली जाएंगी जो इलाक़े बचेंगे उन में खनन का काम चलेगा।.

By Vivek Shukla on June 19, 2013

http://www.niticentral.com/2013/06/19/the-secret-of-tragedy-in-uttrakhand-92041.html?utm_source=twitterfeed&utm_medium=twitter

 

The secret of tragedy in Uttrakhandउत्तराखंड में जिस विनाशलीला को देश देख रहा है,उसके मूल में हमारा वहां पर प्राकृतिक के साथ खिलवाड़ करना है। उत्तराखंड पारिस्थिक तौर पर खोखला होता जा रहा है। यहां की सरकारों ने केन्द्र सरकार के साथ मिलकर राज्य में अनगिनत विद्युत परियोजनाएं शुरू की हैं।

बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम जारी है। अगर सभी योजनाओं पर काम पूरा हो गया तो एक दिन जल स्रोतों के लिए मशहूर उत्तराखंड में नदियों के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे। इससे जो पारिस्थितिकीय संकट पैदा होगा उससे इंसान तो इंसान, पशु-पक्षियों के लिए भी अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो जाएगा.

सरकार गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करती है, पर भागीरथी नदी अब पहाड़ी घाटियों में ही ख़त्म होती जा रही है। अपने उद्गम स्थान गंगोत्री से थोड़ा आगे बढ़कर हरिद्वार तक उसको अपने नैसर्गिक प्रवाह में देखना अब मुश्किल हो गया है। गंगोत्री के कुछ क़रीब से एक सौ तीस किलोमीटर दूर धरासू तक नदी को सुरंग में डालने से धरती की सतह पर उसका अस्तित्व ख़त्म सा हो गया है।

उस इलाक़े में बन रही सोलह जल विद्युत परियोजनाओं की वजह से भागीरथी को धरती के अंदर सुरंगों में डाला जा रहा है. बाक़ी प्रस्तावित परियोजनाओं के कारण आगे भी हरिद्वार तक उसका पानी सतह पर नहीं दिखाई देगा या वो नाले की शक्ल में दिखाई देगी। यही हालत अलकनंदा की भी है।

ध्यान रहे कि इस तरह के हालात तो गंगा की प्रमुख सहायक नदियों भागीरथी और अलकनंदा का है। बाक़ी नदियों से साथ भी सरकार यही बर्ताव कर रही है। एक अनुमान के मुताबिक़ राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई क़रीब पंद्रह सौ किलोमीटर होगी। इतने बड़े पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ़ नदी के निशान ही बचे रहेंगे।

पानी के नैसर्गिक स्रोत ग़ायब हो गए हैं। कहीं घरों में दरारें पड़ गई हैं तो कहीं पर ज़मीन धंसने लगी है। भूस्खलन के डर से वहां के कई परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने को मजबूर रहते हैं।

जोशीमठ जैसा पौराणिक महत्व का नगर पर्यावरण से हो रहे इस मनमाने खिलवाड़ की वजह से ख़तरे में है। उसके ठीक नीचे पांच सौ बीस मेगावॉट की विष्णुगाड़-धौली परियोजना की सुरंग बन रही है। डरे हुए जोशीमठ के लोग कई मर्तबा आंदोलन कर अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की कोशिश कर चुके हैं। लेकिन उनकी मांग सुनने के लिए सरकार के पास वक़्त नहीं है. कुमाऊं के बागेश्वर ज़िले में भी सरयू नदी को सुरंग में डालने की योजना पर अमल शुरू हो चुका है।

अपने अस्तित्व के इतने साल गुजर जाने के बाद भी उत्तराखंड में पानी की समस्या हल नहीं हो पाई है.। ये हाल तब है जब उत्तराखंड पानी के लिहाज़ से सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है. ठीक यही हाल बिजली का भी है।

हैरत की बात है कि उत्तराखंड जैसे छोटे भूगोल में पांच सौ अठावन छोटी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। इन सभी पर काम शुरू होने पर वहां के लोग कहां जाएंगे इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

राज्य और केंद्र सरकारें इस हिमालयी राज्य की पारिस्थिकीय संवेदनशीलता को नहीं समझ रही है। सरकारी ज़िद की वजह से टिहरी में बड़ा बांध बनकर तैयार हो गया है। यहां के कई विस्थापितों को तराई की गर्मी और समतल ज़मीन पर विस्थापित किया गया।

दुनियाभर के भूगर्ववैज्ञानिक इस को कई बार कह चुके हैं कि हिमालयी पर्यावरण ज़्यादा दबाव नहीं झेल सकता इसलिए उसके साथ ज़्यादा छेड़छाड़ ठीक नहीं। लेकिन इस बात को समझने के लिए हमारी सरकारें बिल्कुल तैयार नहीं हैं।

आज पहाड़ी इलाकों में विकास के लिए एक ठोस वैकल्पिक नीति की ज़रूरत है। जो वहां की पारिस्थितिकी के अनुकूल हो. ऐसा करते हुए वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक और भूगर्वीय स्थितियों का ध्यान रखा जाना ज़रूरी है।

इस बात के लिए जब तक हमारी सरकारों पर चौतरफ़ा दबाव नहीं पड़ेगा तब तक वे विकास के नाम पर अपनी मनमानी करती रहेंगी और तात्कालिक स्वार्थों के लिए कुछ स्थानीय लोगों को भी अपने पक्ष में खड़ा कर विकास का भ्रम खड़ा करती रहेंगी. लेकिन एक दिन इस सब की क़ीमत आने वाली पीढ़ियों को ज़रूर चुकानी होगी.

आज उत्तराखंड में अनगिनत बांध ही नहीं बन रहे हैं बल्कि कई जगहों पर अवैज्ञानिक तरीक़े से खड़िया और मैग्नेसाइट का खनन भी चल रहा है. इसका सबसे ज़्यादा बुरा असर अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ ज़िलों में पड़ा है. इस वजह से वहां भूस्खलन लगातार बढ़ रहे हैं. नैनीताल में भी बड़े पैमाने पर जंगलों को काटकर देशभर के अमीर लोग अपनी ऐशगाह बना रहे हैं. अपने रसूख का इस्तेमाल कर वे सरकार को पहले से ही अपनी मुट्ठी में रखे हुए हैं.

पर्यारण से हो रही इस छेड़छाड़ की वजह से ग्लोबल वार्मिंग का असर उत्तराखंड में लगातार बढ़ रहा है. वहां का तापमान आश्चर्यजनक तरीक़े से घट-बढ़ रहा है. ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं. इस सिलसिले में पिछले दिनों राजेंद्र पचौरी की संस्था टेरी और पर्यावरण मंत्रालय के बीच हुआ विवाद का़फी चर्चा में रहा.

वे इस बात पर उलझे रहे कि हिमालयी ग्लेशियर कब तक पिघल जाएंगे. लेकिन इसकी तारीख़ या साल जो भी हो इतना तय है कि सुरक्षा के उपाय नहीं किए गए तो भविष्य में ग्लेशियर ज़रूर लापता हो जाएंगे। तब उत्तर भारत की खेती के लिए वरदान माने जाने वाली नदियों का नामो-निशान भी ग़ायब हो सकता है। तब सरकारें जलवायु परिवर्तन पर घड़ियाली आंसू बहाती रहेगी।

टिहरी बांध का दंश राज्य के ग़रीब लोग पहले ही देख चुके हैं। अब नेपाल सीमा से लगे पंचेश्वर में सरकार एक और विशालकाय बांध बनाने जा रही है। ये बांध दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा बांध होगा। ये योजना नेपाल सरकार और भारत सरकार मिलकर चलाने वाली हैं। इससे छह हज़ार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की बात की जा रही है। इसमें भी बड़े पैमाने पर लोगों का विस्थापन होना है और उनकी खेती योग्य उपजाऊ़ जमीन बांध में समा जानी है।. इस तरह प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होना ही आज उत्तराखंड के लिए सबसे बड़ा अभिशाप बन गया है।

सारे हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि एक दिन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाक़ों में सिर्फ़ बांध ही बांध नज़र आएंगे। नदियां सुरंगों में चली जाएंगी जो इलाक़े बचेंगे उन में खनन का काम चलेगा।. इस विकास को देखने के लिए लोग कोई नहीं बचेंगे। तब पहाड़ों में होने वाले इस विनाश के असर से मैदानों के लोग भी नहीं बच पाएंगे। कम से कम हमें अब जाग जाना चाहिए। अगर नहीं जागे तो उत्तराखंड में बर्बादी को हम आगे भी देखते रहेंगे।

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