Friday, May 18, 2012

हमारी संसद के छह दशक


हमारी संसद के छह दशक


POSTED BY: DR.VAIDIK ON: MAY 16 2012 • CATEGORIZED IN: ARTICLES


दैनिक भास्कर, 16 मई 2012: भारतीय संसद के 60 साल पूरे होने का अर्थ अत्यंत असाधारण है| एशिया में यों तो संसदें और भी हैं और हम से पुरानी भी हैं लेकिन जो बात हमारी संसद में है, वह किसी और में नहीं है| हमारी संसद ने हमारे संविधान और हमारे लोकतंत्र की रक्षा की है| ज़रा हम एशिया और अफ्रीका पर नज़र घुमाकर देखें| दूर क्यों जाएं, जरा दक्षिण एशिया पर ही गौर करें| हमारे अड़ौसी-पड़ौसी देश हमारे साथ ही आजाद हुए थे लेकिन वहां क्या-क्या नहीं हुआ? फौजी तख्ता-पलट हुए, कई नए संविधान बने, संसदें रद्द हुईं या नकारा बना दी गईं लेकिन भारत ने 65 साल पहले जो ढांचा खड़ा किया था, वह आज भी सही-सलामत है| आपात्काल के डेढ़-दो साल अपवाद जरूर रहे लेकिन उस दौरान भी देश के विपक्षी नेताओं ने लोकतंत्र की मशाल को बुझने नहीं दिए| संसद में उनकी आवाज़ गूंजती रही| संसद के चुनाव हुए और सरकार उलट गई| अगर संसद नहीं होती तो क्या चुनाव होते? चुनाव नहीं होते तो क्या इंदिरा-सरकार उलटती?
यदि भारत का मूल संविधान आज तक टिका हुआ है तो इसका कारण भी संसद ही है| संसद की कठोर दृष्टि और लचीली शैली के कारण एक सौ से ज्यादा संशोधन हो गए लेकिन पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल आदि की तरह हमने अपने संविधान को कूड़े की टोकरी में फेंकना जरूरी नहीं समझा| यदि हमारी संसद निकम्मी होती तो यह संविधान कभी का डूब गया होता|
हमारी संसद में हंगामे बहुत होते हैं, कभी-कभी काम बिल्कुल ठप्प हो जाता है और बहसों में गंभीरता भी नहीं दिखाई पड़ती लेकिन हम यह क्यों भूल जाते हैं कि इस देश की जनता का गुस्सा आखिर कहां फूटेगा? यदि जनता के प्रतिनिधि सदन में बैठकर सरकार को जनता का आईना नहीं दिखाएंगे तो फिर लोकतंत्र का क्या महत्व रह जाएगा? एक सबसे पुराने माननीय सदस्य ने दुख प्रकट किया कि आजकल की तरह हंगामे उस समय नहीं होते थे| मैं उनसे पूछता हूं कि उस समय की सरकारें क्या आजकल की तरह भ्रष्टाचार में गले-गले तक डूबी रहती थीं? क्या सरकार का नेतृत्व दब्बू नौकरशाहों और नादान गृहलक्ष्मियों के हाथ में होता था? सरकार में जो लोग बैठे होते थे, उनका तप और त्याग विपक्ष के किसी नेता से कम न होता था| अगर आचार्य कृपालानी और डॉ. राममनोहर लोहिया दहाड़ते थे तो उधर से जवाहरलाल नेहरू और गोविंदवल्लभ पंत जवाब के लिए तैयार होते थे| दोनों पक्षों की बौद्घिक और चारित्रिक क्षमता पर किसी को संदेह नहीं होता था| अब हमारी संसद का काफी बोझ तो अदालतें ही हल्का करती रहती हैं|
अब संसद का महत्व घटा है तो हमें सिर्फ सांसदों की निंदा करके खुश नहीं हो जाना चाहिए| यह सतही रवैया है| अब भी हमारी संसद में एक से एक रत्न हैं लेकिन उनकी आभा दीप्तिमान नहीं हो पाती और जो दूसरी श्रेणी के लोग हैं, वे असली चिंता का विषय हैं| ये लोग क्या संसद में अपने आप पहुंच गए हैं? क्या हमारी जनता इतनी भोली है कि वह "चोरों, लुटेरों, हत्यारों और अपराधियों" को पहचान नहीं पाती? वह जानती है लेकिन उसकी मजबूरी है| वह इन्हीं लोगों में से किसी एक को चुनने के लिए मजबूर हो जाती है| वह मजबूर क्यों हो जाती है? यही असली रोग है| इसकी दवा खोजना ही सही इलाज है|
इस रोग की दवाइयां कई हो सकती हैं| लेकिन दो बड़ी दवाइयां मुझे अचूक मालूम पड़ती हैं| एक तो पार्टी-व्यवस्था में सुधार और दूसरा, चुनाव-प्रक्रिया में सुधार! भारत की राजनीतिक पार्टियों का हाल प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों से भी बदतर है| रूपए-पैसे का तो वहां कोई हिसाब होता ही नहीं है, उम्मीदवारों के चयन का भी कोई निश्चित मानदंड नहीं है| लोकसभा के लिए तो फिर भी यह देखा जाता है कि जनता उसे चुनेगी या नहीं लेकिन राज्यसभा की सदस्यता तो जेबी रूमाल की तरह है| यदि पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र हो, हर पद के बाकायदा चुनाव हों और इन पार्टी-चुनावों में केवल उन्हीं उम्मीदवारों को चुना जाए, जिन्हें उनके पार्टी-सदस्यों का बहुमत मिला हो तो संसद में पहुंचने पर ये सदस्य अपने पांव पर खड़े हो सकेंगे| अपने अंत:करण की आवाज सुनेंगे| आज तो वे बंधुआ मजदूरों की तरह हैं| वे संसद में बैठकर जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, वे अपने पार्टी-नेताओं की नौकरी बजाते हैं| यह संसद और लोकतंत्र, दोनों का मज़ाक है|
दूसरी दवा है, चुनाव-प्रक्रिया में सुधार! भारत में आजकल चुनाव इतने मंहगे हो गए हैं कि संसद भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी जड़ बन गई है| संसद हमारे लोकतंत्र का सबसे पवित्र मंदिर है लेकिन उस तक पहुंचने के लिए भ्रष्टाचार के कौन-कौन से तरीके नहीं अपनाए जाते? चुनाव में खर्च होनेवाले करोड़ों-अरबों वसूल करने में ही सारे जीते हुए नेता अगले पांच साल गुजार देते हैं| उनको मिलनेवाली पांच करोड़ की सालाना राशि का भी इस्तेमाल वे कैसे करते हैं, वे ही जानें| चुनाव आयोग, सभी पार्टियों और देश के चुने हुए बुद्घिजीवियों को बैठकर चुनाव-खर्च घटाने पर तत्काल विचार करना चाहिए| यह कितनी शर्म की बात थी कि पिछली संसदों में हमारे कुछ सांसदों ने सवाल पूछने और अपना वोट पलटने के लिए पैसे खाए? संसद के सत्रों में कमी और सांसदों की गैर-हाजिरी का सरल उपचार तो यही है कि उनकी तनखा और समस्त सुविधाएं समाप्त कर दी जाएं और सिर्फ भत्ता दिया जाए, उपस्थित रहने का भत्ता कई गुना बढ़ाया जा सकता है ताकि उन्हें कुल मिलाकर हानि न हो| संसद में उपस्थित रहना उनकी मजबूरी बन जाए| तब विधेयक भी ज्यादा पास होंगे और बहस का स्तर भी ऊंचा होगा|
हमारी चुनाव-प्रक्रिया इतनी गड़बड़ है कि आज तक देश में एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी, जिसे कुल मतदाताओं के 50 प्रतिशत वोट भी मिले हों| 120 करोड़ के इस देश में राज कर रही वर्तमान सरकार को 12 करोड़ वोट भी नहीं मिले हैं| पी.वी. नरसिंहराव के अलावा एक भी प्रधानमंत्री ऐसा नहीं हुआ, जो अपने चुनाव-क्षेत्र में स्पष्ट बहुमत से जीता हो| अब तक बनी सभी संसदों में ऐसे दर्जन भर सांसद भी खोजना मुश्किल हैं, जो अपने कुल मतदाताओं के बहुमत से जीतकर आए हों| हमारी संसद प्रभावशाली तभी बनेगी जबकि उसमें आनेवाले सांसद अपने-अपने क्षेत्र के स्पष्ट बहुमत से जीतकर आए हों| यह तभी संभव है जबकि चुनाव प्रकि्रया में बुनियादी सुधार हों| भारत की संसद विश्व की सर्वश्रेष्ठ संसद बन सकती है, बशर्तें कि हमारे नेताओं में इच्छाशक्ति और दृष्टि हो|

 









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