Friday, August 30, 2013

Fwd: अयोध्या की चौरासी कोसी परिक्रमा और मुसलमानों की आहत भावनाएँ--डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री




अयोध्या की चौरासी कोसी परिक्रमा और मुसलमानों की आहत भावनाएँ--डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

तीर्थ यात्राएँ और परिक्रमा भारत की पुरानी परम्परा है । जम्मू कश्मीर में अमरनाथ की यात्रा के लिये देश के कोने कोने से लोग आते हैं । आन्ध्रप्रदेश में तिरुपति बाला जी , अमृतसर में स्वर्ण मंदिर , असम में कामाख्या देवी , ओडीशा में जगन्नाथ पुरी , गया जी में बौद्ध मंदिर  इत्यादि की यात्राएँ साल भर चलती ही रहती हैं । इसी प्रकार परिक्रमाओं की परम्परा है । ब्रज में गोवर्धन परिक्रमा , वाराणसी की छह कोसी परिक्रमा , कैलाश मानसरोवर में कैलाश परिक्रमा , जिसे तिब्बत के लोग कैलाश कोरा कहते है , सर्व विदित हैं । प्राचीन काल में तो बर्मा से , थाईलैंड होते हुये कम्बोडिया के अंगकोर विष्णु मंदिर तक , स्थल मार्ग से यात्रा की परम्परा थी । गुरु नानक देव तो अपने कुछ शिष्यों को लेकर प्राय यात्रा पर ही रहते थे । वे अपनी इन यात्राओं में रामेश्वरम से होते हुये श्री लंका तक गये । उधर बग़दाद तक भी जा पहुँचे थे । राहुल सांकृत्यायन ने तो मध्य एशिया के बाकू तक में एक पंजाबी साधु की यात्रा और दुर्गा मंदिर में धूना लगाने की कथा लिखी है । इन यात्राओं और परिक्रमाओं , में से कुछ के लिये तो समय भी निर्धारित है । जैसे देश भर में भगवान शंकर के भक्तों की कांवड यात्रा के लिये सावन मास निश्चित है । लेकिन अनेक यात्राएँ व परिक्रमाएँ साल भर भक्त अपनी सुविधा के अनुसार करते हैं ।जब से यातायात के साधन बढ़े हैं , यात्राओं व परिक्रमाओं का विस्तार हुआ है , तब से जो परिक्रमा या यात्रा पहले साल में केवल निश्चित दिनों में होती थी , वे प्राय साल भर होने लगीं हैं । अरुणाचल प्रदेश में लोहित ज़िला में परशुराम कुंड की यात्रा पहले वैशाख मास में होती थी और उसमें भी स्थानीय लोग ही आते थे , लेकिन अब तो वर्ष भर वहाँ श्रद्धालु जाते रहते हैं । लद्दाख में सिन्धु दर्शन यात्रा का पिछले कुछ वर्षों में ही विस्तार हुआ है । ये यात्राएँ व परिक्रमाएँ एक प्रकार से पूरे देश को जोड़ने का काम करती हैं । परिक्रमाएँ देश की एकात्मता का स्वर हैं । शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों की पैदल यात्रा कर सारे देश को एक सूत्र में पिरोया था । जम्मू कश्मीर में राजौरी के बन्दा बहादुर महाराष्ट्र में अपना आश्रम बना कर बैठे थे ।
                      लेकिन इन सभी परिक्रमाओं में सब से बड़ी परिक्रमा है , अयोध्या की चौरासी कोस की परिक्रमा । आज की गणना के हिसाब से चौरासी कोस का अर्थ २५० किलोमीटर है । वैसे तो आजकल सीता राम केदलिया जी भारत परिक्रमा कर रहे हैं । देश के एक कोने से दूसरे कोने को अपने पैरों से नापते हुये । साधु संतों के लिये हर दिन यात्रा का दिन ही होता है । लेकिन अभी हाल ही में इन यात्राओं को लेकर एक नई समस्या खड़ी हो गई है । २५ अगस्त से १३ सितम्बर तक साधु संत अयोध्या की चौरासी कोसी यात्रा कर रहे हैं । उत्तर प्रदेश के एक मंत्री रामपुर के मोहम्मद आज़म खान का कहना है कि अयोध्या की यात्रा से मुसलमानों की भावनाएँ आहत हो रही हैं । पिछले दिनों विश्व हिन्दु परिषद के मार्गदर्शक अशोक सिंहल मुलायम सिंह यादव से मिले थे । बाद में आज़म खान को इस का पता चला तो उन्होंने बताया कि इससे मुसलमानों में ग़लत संदेश जायेगा । वैसे तो वक़्त वक़्त की बात है कि रामपुर के आजमखान , राम की अयोध्या की परिक्रमा में ही मुसलमानों में ग़लत संदेश देख रहे हैं । जिस रामपुर से राम परिक्रमा शुरु होनी चाहिये थी , उसी रामपुर से उसका विरोध हो रहा है । यदि मध्यकाल में हिन्दुस्तान अरबों , तुर्कों , अफगानों व मध्य एशिया के इस्लामी मंगोलों से न पराजित होता तो कम से कम रामपुर से यह आवाज़ नहीं आ सकती थी । लेकिन जैसा कि कहा गया है , वक़्त वक़्त की बात है । पर आजम खान इतना तो जानते होंगे कि अब तो भारतीय इतिहास का मध्यकाल नहीं है । यह इक्कीसवाँ शताब्दी है । इसके बावजूद वे मध्यकाल के मुग़लों की भाषा का प्रयोग क्यों कर रहे हैं ?
                          पिछले दिनों जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री ने भी बताया था कि "अफ़ज़ल गुरु साहिब" को फाँसी देने से मुसलमानों की भावनाएँ आहत होंगी । कुछ लोग कसाब साहिब को फाँसी देने से भी मुसलमानों की भावनाएँ आहत होने का रोना रो रहे थे । जब शिया समाज के लोग , अन्याय से लड़ते हुये इमाम हुसैन के वीर गति को प्राप्त हो जाने की स्मृति में ताजिया निकालते हैं , तब भी मुसलमानों की भावनाएँ अत्याधिक आहत हो जाती हैं । भारत माँ को सिजदा करने से भी मुसलमानों की भावनाएँ आहत हो जाती हैं । पिछले दिनों संसद में एक मुसलमान की भारत माता को सिजदे का गीत बन्दे मातरम सुन कर ही भावनाएँ इतनी आहत हुईं की वह संसद छोड़ कर ही भागा । या खुदा , कहीं ग़लती से भी भारत माँ की स्तुति का एक शब्द भी कान में न पड़ जाये । पिछले दिनों बिहार के नवादा में तो एक ढावे के मालिक द्वारा केवल यह कह देने कि , श्रावन मास में यहां मांसाहारी भोजन नहीं बनता , मुसलमानों की भावनाएं भडक उठीं और दंगा तक हो गया । दीवाली के दीपक देख कर , मंदिर का संगीत सुन कर , होली का रंग देख कर , विजय दशमी का राम देख कर , कर्बला का हुसैन देख कर मुसलमानों की भावनाएँ आहत हो जातीं हैं । और अब ये अयोध्या की चौरासी कोस की परिक्रमा देख कर आहत हो रही हैं ।
                         समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव को शायद स्वयं पता नहीं चलता कि मुसलमानों की भावनाएँ किस किस चीज़ से आहत होती हैं । लेकिन वे ठहरे घुटे हुये राजनीतिज्ञ । उन्होंने यह महकमा मोहम्मद आज़म खान को दे रखा है । जैसे ही मुसलमानों की भावनाएँ आहत होने लगती हैं , वह तुरन्त जाकर मुलायम सिंह को कान में बता देते हैं । लेकिन लगता है चौरासी कोसी यात्रा से भावनाएँ आहत ही नहीं , उत्तेजित भी होने लगीं हैं , इसलिये इस बार वे कान में नहीं बल्कि चिल्ला कर बता रहे हैं । मुलायम सिंह ज़िन्दगी में और सब कुछ बर्दाश्त कर सकते हैं लेकिन मुसलमानों की भावनाएँ आहत होती नहीं देख सकते । इससे उनको कुछ कुछ होने लगता है । इसलिये उन्होंने पक्का बंदोबस्त कर दिया है । अयोध्या के आसपास भी कोई रामभक्त फटक नहीं पायेगा । सरयू नदी पर भी पहरा बिठा दिया है । कोई इसके पानी को छूकर तो देखे । इधर सरयू नदी के पानी में कोई रामभक्त उतरा नहीं उधर आज़म खाँ ने खाँसना शुरु किया नहीं । मुलायम सिंह आज़म खान की खाँसी की बीमारी से बहुत डरते हैं । उनका मानना है कि जब आज़म खाँ को खाँसी हो जाती है तो मुसलमान समाजवादी पार्टी को वोट नहीं देते । मुसलमान वोट नहीं देंगे तो मुलायम सिंह का ख़ानदान सत्ता में नहीं आता । हिन्दोस्तान में यदि किसी को सत्ता प्राप्त करनी है तो वह मुसलमान के वोट से ही प्रप्त कर सकता है , ऐसा नेहरु के वक्त में ही निश्चित हो गया था । इसलिये आज़म खाँ की खाँसी का इलाज करना ज़रुरी है । ऐसा नहीं कि इसका इलाज केवल मुलायम सिंह ही करना चाहते हैं । सोनिया कांग्रेस से लेकर लालू यादव तक बरास्ता नीतिश कुमार तक सभी झोले में आज़म खानों की खाँसी के इलाज की गोलियाँ लेकर घूम रहे हैं । देखना है वे किसकी पुडियों को गटकते हैं ? वैसे सोनिया कांग्रेस का वश चले तो वह इस देश में सभी तीर्थ यात्राओं एवं परिक्रमाओं को ही प्रतिबन्धित कर दें । ऐसा हो जाये तो फिर किसी मुसलमान को खाँसी हो ही न ।
        लेकिन अगला प्रश्न ज़्यादा महत्वपूर्ण है । इस देश के सामान्य सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक क्रियाकलापों को देख कर मुसलमानों की भावनाएँ आहत क्यों होती हैं ? यह एक प्रकार की एलर्जी है । किसी तीर्थ यात्रा को देख कर या किसी ऐतिहासिक स्थान की परिक्रमा होते देख इस देश के मुसलमान एलर्जी का शिकार क्यों हो जाते हैं ? यह बीमारी कहां से आई ? यह इस देश के मुसलमानों की आनुवांशिक बीमारी तो हो नहीं सकती , क्योंकि इस देश के मुसलमानों के पुरखे  कुछ सौ साल पहले तक हिन्दु ही थे और इन्हीं तीर्थ यात्राओं और परिक्रमाओं में भजन गाते हुये भाग लेते थे । अत: अचानक ही उन की संतानों को इन्हीं तीर्थयात्राओं से एलर्जी हो सकती है , इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता । ये मुसलमान शत प्रतिशत भारतीय हैं और ईरान की भाषा में कहना हो तो "इन हिन्दी ए" । एक संभावना और हो सकती है । इस देश पर आक्रमण करने के लिये अलग अलग समय पर अरब , तुर्क , मुग़ल और अफ़ग़ान मुसलमान विदेशों से आये थे । स्वभाविक ही वे विदेशी थे , इसलिये तीर्थ यात्राओं और मंदिरों को देख कर उन्हें एलर्जी होती थी । एलर्जी तो एलर्जी है , लेकिन किसी शासक को हो जाये तो वह और भी ख़तरनाक हो जाती है । अब यही विदेशी मुसलमान इस देश के शासक हो गये थे । उनकी यह एलर्जी हिन्दोस्तान को बहुत भारी पड़ी । तीर्थ यात्राओं पर जज़िया टैक्स लगे और मंदिर तो तोड़ ही दिये गये ।अयोध्या का राम मंदिर बाबर की उसी एलर्जी का शिकार हुआ था । लेकिन  एलर्जी की यह बीमारी भारत में आ गये विदेशी मुसलमानों को थी , भारतीय मुसलमानों को नहीं । लेकिन बीमारी तो आख़िर बीमारी है । कुछ हिन्दोस्तानी मुसलमानों को भी लगी । जिन्नाह इसके शिकार हो गये थे । उनकी बीमारी इतनी बढ़ी की उन्होंने चिल्लाना शुरु कर दिया कि यहाँ का मतान्तरित मुसलमान भी यहाँ के लोगों के साथ नहीं रह सकता । डाक्टर का काम अंग्रेज़ कर रहे थे । उन्होंने जिन्ना की एलर्जी का इलाज करने के बजाय उसे और बढ़ा दिया । नतीजा जो हो सकता था , वही हुआ । देश खंडित हो गया ।
                अब फिर आज़म खानों ने कहना शुरु कर दिया है कि तीर्थ यात्रा से एलर्जी हो रही है और मुलायम सिंहों ने उसका इलाज भी अंग्रेज़ डाक्टर की तर्ज पर करना शुरु कर दिया है । ख़ुशी की बात इतनी है कि इन आज़म खानों के साथ मुसलमान-ए-हिन्द नहीं हैं । ये उन का नाम लेकर अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं और उन्हीं की आड़ में शिकार मार रहे हैं । यदि मुलायम सिंह को मुसलमानों की वोटों की इतनी ही चिन्ता है तो उन्हें मुसलमानों से बिना दलालों की सहायता से सीधी बात करनी चाहिये । तब उनको पता चल जायेगा कि आम मुसलमान इस एलर्जी की बीमारी से ग्रस्त नहीं है और न ही अयोध्या की चौरासी कोसी यात्रा से उसकी भावनाएँ आहत होतीं हैं । क्योंकि उन की भावनाएँ भी वही हैं जो इस देश के तमाम अवाम की हैं । मुस्लिम राष्ट्रीय मंच जो मुसलमानों की प्रतिनिधि तंजीम है , ने अयोध्या की चौरासी कोसी यात्रा का स्वागत किया है ।
            एलर्जी की बीमारी लगने से पहले अल्लामा इक़बाल ने जो कहा था , उस पर भी नज़र डाल ली जाये-
                     मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नाम-ए-हिन्द
                      है राम के वुजूद पे हिन्दोस्तां को नाज
                       अहले नज़र समझते हैं उसको इमाम-ए-हिन्द
इसलिये ज़रुरी है कि इस बीमारी का जल्द इलाज किया जाये , नहीं तो राजनीति के खाद पानी में फल फूल कर यह अहल-ए-हिन्द के मुसलमानों को भी लग सकती है ।
                          "राम के वुजूद पर हिन्दोस्तां को नाज" हो सकता है , लेकिन मुलायम सिंह को तो लगता है अभी भी अपने आज़म खानों पर ही नाज है । यही कारण था कि २५ अगस्त को उत्तर प्रदेश  पुलिस ने विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंहल को तो लखनऊ हवाई पत्तन से बाहर ही नहीं निकलने दिया , वे अयोध्या जाने वाले थे । उत्तर प्रदेश के अनेक नगरों में सामान्य लोगों को ही रात को उनके मकानों को घेर कर बंदी बना लिया गया । पुलिस को शक था कि ये लोग अयोध्या जाकर राम को नमन कर सकते हैं । साधु संतों की तो और भी बुरी गत बन रही थी । उत्तर प्रदेश में किसी भी गाड़ी में जो फ़ैज़ाबाद से होकर गुज़रने वाली हो , कोई भी साधु दिखाई देता तो पुलिस उसे बलपूर्वक गाड़ी से उतारती है और थाने में ले जाकर हवालात में ठूँस देती । अयोध्या नगरी में ग़लती से भी कोई भगवे कपड़े वाला नज़र आता ,तो पुलिस के हत्थे चढ़ जाता । उत्तर प्रदेश के बड़े पुलिस अधिकारी मुर्ग़े की तरह कलगी नचा नचा कर पत्रकारों को बता रहे थे कि किसी भी हालत में अयोध्या की यह यात्रा रोकी जायेगी ।
                उधर राशिद अलवी , आज़म खान , से लेकर हाशिम अंसारी    तक घोषणा कर रहे हैं कि यह यात्रा शास्त्र सम्मत नहीं है । इसका समय निकल चुका है । इसलिये अगस्त मास में यह नहीं हो सकती । सचमुच यह भारतीय इतिहास का सबसे करुणाजनक कालखंड कहा जा सकता है , जब हिन्दुओं की तीर्थ यात्राओं के मुहूर्त मुल्ला मौलवी निकाल रहे हैं । इटली से लेकर सऊदी अरब तक के सब ज्योतिषी भारतीय शास्त्रों की व्याख्या कर , इस देश के लोगों को अयोध्या परिक्रमा की तिथि बता रहे हैं और उत्तर प्रदेश सरकार उसी को प्रामाणिक मान कर साधु संतों को पीट पीट कर अयोध्या से भगा रही है ।
                              मुलायम से लेकर दिग्विजय तक कह रहे हैं कि यह यात्रा धार्मिक नहीं बल्कि राजनीति से प्रेरित है । राजनीति से प्रेरित यानि अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिये संकल्प लेने की यात्रा । कोई मंदिर में जाकर भगवान के आगे क्या प्रार्थना कर सकता है ,क्या इसके लिये भी अब शासन से , या किसी मौलवी से , या किसी पादरी से अनुमति लेनी पडेगी ? अयोध्या परिक्रमा करते समय राम मंदिर बनाने की प्रार्थना करने से ही क्या क़ानून व्यवस्था भंग हो जाती है ? यदि यात्रा करते समय कोई भक्त किसी क़ानून का उल्लंघन करता है , तो उसे सरकार पकड़ कर अभियोग चला सकती है । लेकिन कोई भक्त अयोध्या की यात्रा कर रहा है , सरयू के तट पर पूजा कर रहा है , इसे अपराध कैसे ठहराया जा सकता है ? उत्तर प्रदेश सरकार तो यही कर रही है । केवल कर ही नहीं रही बल्कि उसकी शेखी बघार कर मानों समस्त हिन्दु समाज को चुनौती भी दे रही है । यही चुनौती अयोध्या में राम मंदिर को गिरते समय बाबर और उसके सेनापतियों ने तत्कालीन हिन्दु समाज को दी थी । वही चुनौती उसी मुद्दे को लेकर मुलायम सिंह और उसके सिपाहसलार दे रहे हैं । सैकडों साल के अन्तराल के बाद भी न मुद्दा बदला है न चुनौती । फ़र्क इतना ही ही कि बाबर का "बेटन baton" मुलायम सिंह को हैंडओवर हो गया है ।
            राम मंदिर बनाने की बात करना , उसके लिये जनता में जागृति पैदा करना तो अपने आप में अपराध नहीं है । लेकिन लगता है वोटों के खेल में सरकार अब अयोध्या परिक्रमा को भी अपराधों की श्रेणी में रख रही है ।सरकार ने अयोध्या परिक्रमा को ही प्रतिबन्धित कर दिया । यात्रा के दौरान क़ानून व्यवस्था बनी रहे और जो उसे तोड़ने की कोशिश करे उसे पकड़ कर उचित न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किया जाये , यह समझ आ सकता है , लेकिन  सरकार ने तो अयोध्या यात्रा को ही प्रतिबन्धित कर दिया । यह इस देश के सभी लोगों के मौलिक अधिकारों की हत्या ही कही जा सकती है । यात्रा का कौन सा समय और कौन सा मुहूर्त ?  साधु संत तो साल भर प्रवास पर ही रहते हैं । कहा भी तो गया है , बहता पानी रमता जोगी । सरयू का पानी बहता रहेगा और साधु परिक्रमा करता रहेगा । लेकिन सरकार ने सरयू के घाट पर पहरा बिठा दिया है और परिक्रमा कर रहे जोगियों को पकड़ कर जेल में डाल दिया है । गुरु नानक को इसी प्रकार परिक्रमा करते देख बाबर ने जेल में डाल दिया था । तब बाबा नानक ने कहा था , ख़ुरासान खसमान किया -हिन्दोस्तान डराईया ।। लगता है सैकडों साल बाद भी अयोध्या से बाबर की आत्मा अभी गई नहीं है । सैकडों रमते जोगी एक बार फिर जेल में हैं । लेकिन इस बार आक्रमण ख़ुरासान से नहीं बल्कि लखनऊ से हुआ है  और इसका उत्तर भी लखनऊ से ही देना होगा । परन्तु असल मुद्दा है अयोध्या का । लगता है अयोध्या में बाबर से वह लड़ाई अभी तक समाप्त नहीं हुई है । किसी ने मुझे लिख कर भेजा है , उसे भी साँझा कर लेने में कोई नुक़सान नहीं । अरुणाचल प्रदेश में दो सौ चीनी सैनिक चार दिन बे रोक टोक परिक्रमा करते रहे । सरकार चुप रही । लेकिन इधर दो सौ साधुओं को अयोध्या परिक्रमा का नाम लेने पर ही सरकार गिरफ़्तार कर रही है ।
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'A nation without a vision dies'

'A nation without a vision dies'

 

हिन्दी सारांश प्रेषित है -

दृष्टि विहीन राष्ट्र की मृत्यु निश्चित पूर्व राष्ट्रपति श्री ए पी जे अब्दुल कलाम
पूर्व राष्ट्रपति श्री ए पी जे अब्दुल कलाम ने अनेकों पुस्तकें लिखी हैं | उनमें से एक My Journey: Transforming Dreams into Action और दूसरी "हमारी प्रजातांत्रिक प्रणाली हमारी जिम्मेदारी क्यों है", पूर्णतः देश के युवाओं को लक्ष्य कर लिखी गई है | उसी सन्दर्भ में उनके दिए गए एक इंटरव्यू के कुछ अंश

प्रश्न - आज बड़प्पन अधिकांशतः भौतिक संपत्ति से नापा जाता है | और प्रकारांतर से यह समाज में असंतोष पैदा करता है | क्या आपको लगता है कि इस भौतिकवाद को दूर करना आज समय की मांग है ?

उत्तर -
मेरा हाई स्कूल तक का अध्ययन ब्रिटिश भारत में हुआ | 1947 में हमने स्वतंत्रता प्राप्त की और भारतीयों के भारत में रहना शुरू किया | मैंने समाज में हो रहे विभिन्न परिवर्तनों को देखा है, यह चाहे अर्थव्यवस्था हो या हमारा वेल्यू सिस्टम | यद्यपि हमारी अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है , किन्तु  हमें नैतिक और मूल्य परक नागरिकों की आवश्यकता है | पिछले 10 वर्षों से मैं एक विचार को बढ़ावा दे रहा हूँ, वह है "प्रबुद्ध नागरिकों का विकास" | इसके तीन आयाम हैं |

पहला है मूल्य आधारित शिक्षा प्रणाली | यह या तो परिवार से संभव है अथवा प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक द्वारा | मेरा अंतिम निष्कर्ष है कि प्रबुद्ध नागरिकों का विकास न केवल भारत के लिए वरन सम्पूर्ण विश्व के लिए आवश्यक है |

दूसरा आयाम है आर्थिक समृद्धि और तीसरा धर्म द्वारा हमारा आध्यात्मिक शक्ति में रूपांतरण | मैं इन तीन आयामों का पक्षधर हूँ | ( www.abdulkalam.com )
मैंने हमारी संसद में व्याख्यान दिया, 23 राष्ट्रों की यूरोपीय संसद तथा 53 देशों की पैन अफ्रीकी संसद और कोरियाई संसद को भी संबोधित किया है | मैं यह नहीं कहता कि भारतीय मूल्य परंपरा अन्य देश भी स्वीकार लें | उनकी अपनी मूल्य प्रणाली के आधार पर विकसित महान नेता और परंपरायें हैं | मैं समझता हूँ कि जीवन मूल्य, संयुक्त परिवार प्रणाली , आर्थिक विकास और धर्म का एक आध्यात्मिक शक्ति में रूपांतरण सभी के लिए महत्वपूर्ण है | यही कारण है कि इस विचार को मैंने विभिन्न इंटरैक्टिव मंचों पर साझा किया है |
प्रश्न आपका काम युवाओं की विचार पद्धति को बदलने व श्रेष्ठता प्रदान करने में प्रेरणादायक है | आज जब हम भूख , बीमारी , बिगड़ते पर्यावरण और जीर्णशीर्ण रहन सहन आदि समस्याओं का सामना कर रहे है, आपको क्या लगता है "देश की दशा कब तक सुधरेगी, कभी सुधरेगी भी या नहीं" ?
उत्तर

विचार कृति का बीज है | विचार जैसा कि पुरातन सुकरात का था | 2200 साल पहले तिरुवल्लुवर ने भी कहा था और इसी कारण मैंने भी संसद में प्रस्तावित किया था कि हमें "भारत विजन 2020" की आवश्यकता है | 2020 तक भारत को आर्थिक रूप से विकसित हो जाना चाहिए | अब भी बहुत देर नहीं हुई है | संसद को विचार करना चाहिए कि कैसे समृद्धि के उद्देश्य से इस राष्ट्र दृष्टि को विकसित किया जा सकता है | हमारी प्राथमिकता होना चाहिए  ' ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं उपलब्ध कराना ' | हमारे किसान 250 लाख टन खाद्य सामग्री का उत्पादन कर रहे हैं | लेकिन हम मूल्य संवर्धन नहीं करते, जिसका अर्थ है अधिक निर्यात की संभावना | हम फलों और सब्जियों के अग्रणी उत्पादक हैं, किन्तु हम इनका जूस या डिब्बाबंद खाद्य के रूप में प्रोसेस नहीं करते | और तीसरा, स्पष्ट ही लघु उद्योग जो देश भर में फैले हुए हैं |
प्रश्न - आप पुरा परियोजनाओं के साथ संपर्क में हैं , जो इन परिणामों को दिखा रहे हैं ?
उत्तर -
मैंने मध्यप्रदेश में देखा है , चित्रकूट प्रकल्प नानाजी देशमुख द्वारा स्थापित किया गया है | वह एक अग्रणी प्रकल्प है जो बहुत अच्छी तरह से काम कर रहा है, 500 से अधिक गांव उससे जुड़े हुए हैं , और समृद्ध है | मैंने महाराष्ट्र में वारना प्रकल्प को देखा | वह सहकारी आंदोलन को बहुत अच्छी तरह से गति दे रहा है और गरीबी उन्मूलन कर रहा है और तीसरा मैंने वल्लम , तंजावुर तमिलनाडु में देखा है |
मैं इन तीनों के साथ संपर्क में हूँ , और अक्सर वहां की यात्रा करता हूँ | इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने सार्वजनिक निजी भागीदारी के साथ कुछ प्रकल्प शुरू किये हैं | प्रकल्पों  की संख्या बढ़ती जा रही है | किन्तु यह अधिक तेजी से होना चाहिए | कुल मिलाकर लगभग 600,000 (छःलाख) गांव हैं, तो हमें अगले 10-15 साल के समय में कमसेकम 7000 प्रकल्प  स्थापित करना है | जबकि अभी इनकी संख्या 100 से भी कम है |
प्रश्न यदि माता पिता भ्रष्टाचार में लिप्त है तो उन्हें भी समझाने के लिए युवाओं प्रेरित करने वाली युवा वाहिनी की क्या संभावना है ? और "हम क्या दे सकते है" मिशन की क्या स्थिति है ?
मिशन ' मैं क्या दे सकता हूँ ' कई स्कूलों और कॉलेजों में शुरू हुआ है | यह एक संरचित कार्यक्रम नहीं है , हम एक सा करना भी नहीं चाहते , इससे यह विचार विकसित नहीं होगा | यह प्रत्येक संस्था की जिम्मेदारी है कि वह अपने यहाँ ऐसा कोई कार्यक्रम शुरू करें और सुधार को बढ़ावा दें | तभी हम खुशहाल घर की कल्पना साकार कर पायेंगे | खुशहाल घर के चार लक्षण हैं | पहला आध्यात्मिकता , दूसरा मां की खुशी, तीसरा पारदर्शिता , और चौथा एक हराभरा और स्वच्छ वातावरण | युवा शपथ लेते हैं कि वे भ्रष्टाचार से मुक्त घर में रहते हैं |
प्रश्न - आपका लेखन महान संतोष को दर्शाता है , यह आपको क्रियाशील रहने से कभी नहीं रोकता ?
उत्तर

ईश्वर केवल उन्हीकी मदद करता है जो कठिन परिश्रम करते हैं | संतोष जैसा कुछ भी नहीं है | सफलता ही अंतिम लक्ष्य नहीं होता |
अपनी समस्याओं को यह अनुमति नही देना चाहिए कि वे तुम्हें डूबा ही दें | मुझे लगता है मैं एक महीने में 80,000 से 1,00,000 युवाओं से मिलता हूँ, इसलिए स्वयं को संतुष्ट नहीं कह सकता | मैं उनके सपनों और उनके दर्द को जानता हूँ | वह राष्ट्र मर जाता है जिसका कोई दृष्टि पथ नहीं होता | संसद को चाहिए कि वह दृष्टि पथ दे |

 


'A nation without a vision dies' 

INTERVIEW Former President of India APJ Abdul Kalam whose book of memoirs has just been launched on why the state of our democracy is our responsibility 

Former President of India APJ Abdul Kalam, who has authored several books, has come out with a deeply personal, readable and pocket-sized book of memoirs, My Journey: Transforming Dreams into Action (Rupa). Dedicated to "the sixteen million youth I have met and interacted with in the last two decades," the book relates his life story that began in Rameswaram, a temple town on the Tamil Nadu coast. Every chapter contains a lesson. He relates, for example, how his father, who was the imam of the mosque at Rameswaram, conferred with his friends — the priest of the temple and of the local church — to thwart communal feelings before they got out of hand. He affectionately recalls his mentors, ranging from his parents and cousins to the eminent scientist Vikram Sarabhai. In the process, a moving portrait of a boy burning with zeal to learn emerges. The simplicity of the small-town boy is overwhelmingly apparent in Dr. Kalam, who made the transition from first citizen to ordinary Indian without a hiccup. Edited excerpts from an interview: 

Today, greatness is largely measured by material wealth, and this in turn brings about discontent in society. Do you feel there is a need for us to shun materialism as your father and elders did? 

I studied till High School in British India. In 1947, we got freedom and I started living in India's India. I have seen various transformations in society, be it the economy or the value system. While our economy is developing, we need citizens with ethics and a value system. For the last 10 years I've been promoting an idea called Evolution of Enlightened Citizens. It has three dimensions. One is education with value system. This comes from the family, or may be from a primary school teacher. After all, the evolution of enlightened citizens is essential for India and the world. Second, comes economic prosperity. Third, religion should transform into a spiritual force. I advocate these three (www.abdulkalam.com). 

I have given lectures in our Parliament, addressed the European parliament of 23 nations, a pan-African parliament of 53 nations, and the Korean parliament. I am not saying the Indian value system should be taken to other countries. They also have great leaders and traditions based on their value system. I believe that one's value system, the joint family system, economic growth and different religions transforming into a spiritual force are vital. That's why I have shared this at various interactive forums. 

Your work gives pre-eminence to inspiring and changing the thought pattern of the youth. However, as we see the country deluged with problems such as hunger, disease, deteriorating environment and unfit living conditions, how long will it take to see change, or is it already visible ? 

Thought is the seed of action. Thought is as ancient as Socrates. Tiruvalluvar, 2,200 years ago, has also said that…That's why I proposed in Parliament that we need India Vision 2020. That is, by 2020, India should become economically developed. Even now, it's not too late. Parliament should consider how it can activate the vision for the nation, so prosperity can be aimed at. Our priority should be to use PURA – 'providing urban amenities in rural areas'. Our farmers are producing 250 million tonnes of food. But we don't do value addition, which means greater export potential. We are leading producers of fruits and vegetables but we don't process these as juice or packaged food. And third, of course, small scale industries which are spread across the country. 

Are you in touch with the PURA projects, and are these showing results? 

I have seen in Madhya Pradesh, the Chitrakoot PURA founded by Nanaji Deshmukh. He is a pioneer and they are doing very well, more than 500 villages are connected, and there is prosperity. Another one I saw in Maharashtra, Warana PURA. There is no poverty there, because the cooperative movement is doing very well. And the third I have seen in Tamil Nadu at Vallam, Thanjavur. 

I am in touch with these three, and visit them often. But apart from that, the Government of India has started a few PURAs with public-private participation. The number of PURAs is increasing. But it has to be fast. After all, there are 600,000 villages; we have to establish 7000 PURAs in 10-15 years' time. We have less than 100. 

What is the status of the Youth Brigade which exhorts young people to stand up even to their parents if they indulge in corrupt practices, and the "What Can I Give" mission? 

Many schools and colleges have started 'What Can I Give' missions. It is not a structured programme, we don't want one; it will not grow. It is the responsibility of each institution to start a programme and promote reform within their institution. Then we have started what is called Happy Home which has four components: spirituality, mother's happiness, transparency, and a green and clean environment. The youth have taken an oath that they will live in a house free from corruption. 

Your writing reflects great contentment, yet this never stops you from action. 

God helps only those who work hard. There is nothing like contentment. Success is not the ultimate aim. 

However, at no time should you allow your problems to overwhelm you. I can't say that I am content, because I meet 80,000 to 100,000 youth a month. I know their dreams, their pain. A nation without a vision dies. Parliament has to give this vision. 

ANJANA RAJAN

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-features/tp-metroplus/a-nation-without-a-vision-dies/article5065821.ece

 

 

 




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हरिहर शर्मा प्रचार प्रमुख स्वामी विवेकानंद सार्धशती आयोजन समिति मध्यभारत 

Monday, August 19, 2013

: दिलीपसिंह जूदेव के निधन पर एक लेख.


मिशनरियों से लड़ने वाले योद्धा का यूँ चले  जाना

'आइ एम द किंग ऑफ रियासत बट दिस परसन इज द किंग ऑफ डेमोक्रेसी' यानि मैं तो एक रियासत का राजा हूं लेकिन जूदेव लोकतंत्र के राजा हैं क्योंकि इन्हें जनता चुनती है. राजस्थान के महाराजा ने अपने विदेशी मेहमानों से दिलीपसिंह जूदेव का परिचय कभी इसी अंदाज में करवाया था. रौबीले चेहरे की शान बन चुकी घनी मूंछों पर ताव देते शख्स के तौर पर, मेरी तरह हिन्दुस्तानियों को भी दो ही चेहरे नजर आते हैं. एक थे देश की आजादी के नायक चंद्रशेखर आजाद और दूसरे जशपुर नरेश दिलीप सिंह जूदेव, जो हमारे बीच अब नहीं रहे. नईदिल्ली के मेदांता अस्पताल में कई दिनों तक जिंदगी और मौत से संघर्ष करने के बाद उन्होंने अंतिम सांसें ली.


इस दु:ख भरे क्षण में ना चाहते हुए भी यह बात कहना पड़ रही है कि गुजरे कुछ समय से जशपुर राजघराने पर अपशकुनों की छाया मंडरा रही है. हम भूले नहीं हैं कि चंद महीनों पूर्व ही उन्होंने अपने बड़े बेटे शत्रुंजय प्रताप सिंह को अकाल मृत्यु के हाथों खोया था और चंद महीनों बाद ही माँ जयादेवी का हाथ भी उनके सर से उठ गया था. ढलती उम्र और छोटी-मोटी बीमारियों से जूझ रहे जूदेव को बड़े बेटे की मौत ने हिलाकर रख दिया था. दरअसल वे उनमें अपना राजनीतिक वारिस खोज रहे थे. सब कुछ ठीक-ठाक रहता तो बिलासपुर का अगला सांसद जूदेव नहीं बल्कि उनके सुपुत्र शत्रुंजय बनते. खुद जूदेव के जनाधार का आलम देखिये कि उनके नाम पर 'जूदेव सेना' तक बनाई गई लेकिन इसका इस्तेमाल उन्होंने अन्य राजनीतिज्ञों की तरह कभी भी पार्टी को ब्लैकमेल करने या किसी को सबक सिखाने के लिये नहीं किया.

भाजपा के लिये अपूरणीय क्षति और हिन्दुत्व रूपी राजनीति का कभी ना भरा जाने वाला शून्य. देश की सियासत से लेकर छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पाटी का जनाधार पैदा करने वालों में जिन नेताओं को खासा याद किया जायेगा, जूदेव उनमें से एक होंगे. शरीर पर फौजी वर्दी, हाथ में हिन्दुत्व का झंडा और इसाई मिशनरियों के पुराने प्रतिद्वंद्वी लेकिन हिन्दु ह्दय सम्राट के तौर पर अपनी पहचान कायम रखने वाले दिलीपसिंह जूदेव एक ऐसे नेता थे जिनके परिवार ने पहले जनसंघ और फिर भाजपा के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया. यह कहते हुए सुकून होता है कि संघर्षशील जनसंघ से लेकर भाजपा के राजशाही युग तक जूदेव की तीसरी पीढ़ी पार्टी की सेवा में वफादारी के साथ लगी है. बहुत कम लोग जानते होंगे कि 1970 के दशक में-जब देश में एक ही पार्टी कांग्रेस का जलवा था-जूदेव के पिताजी ने मात्र एक रात के फैसले में जनसंघ की तरफ से सांसद का चुनाव लडऩे का फैसला स्वीकार किया बल्कि पूंजी लगाकर दूसरे अन्य प्रत्याशियों का हौंसला बढ़ाया. जूदेव पर परिवारवाद के लाख आरोप लगे हों लेकिन आईना दिखाता सच यह है कि राजाजी ने कई गरीब-गुरबों को फर्श से उठाकर अर्श तक पहुंचाया और मंत्री, विधायक व सांसद की कुर्सी दिलवाई.

एशिया का सबसे प्राचीनतम चर्च जशपुर में है तो अंदाजा लगाइये कि यहां पर चर्च की जड़ें कितनी मजबूत होंगी लेकिन जूदेव होश संभालते ही उनके लिए हमेशा अजेय चुनौती बने रहे. हिन्दु से इसाई बन गये लाखों लोगों को पुन: हिन्दु धर्म में लाने के लिये उन्होंने लम्बी-चौड़ी लड़ाईयां इतने प्रभावी ढंग से लड़ी कि 1988 के आसपास जशपुर की एक नन-मिशनरियों की महिला संत-को अदालत ने जिलाबदर कर दिया था.  आदिवासियों के पैर धोकर उन्हें पुन: घर-वापसी कराते हुए देखने पर यकीन नहीं होता था कि एक राजा के मन में हिन्दुत्व के प्रति कितनी श्रद्धा और विश्वास था. अब जबकि जूदेव नहीं हैं, संघ परिवार सहित हिन्दु समाज के समक्ष यह संकट आन पड़ा है कि घर वापसी अभियान की कमान किसके हाथों में होगी?

जशपुर नरेश जूदेव ताउम्र राजा की तरह जिए, राजा की तरह दहाड़े और उनकी विदाई भी राजा की तरह हुई. राजनैतिक नुमाइंदे भूले ना होंगे कि अपने राजनैतिक कैरियर की शुरूआत में उन्होंने पहला चुनाव अर्जुनसिंह के खिलाफ दमदारी से लड़ा था और उनके 'चेले-चपाटों' से अब तक लड़ते रहे. यह कतई छुपा नहीं है कि जोगी और जूदेव परंपरागत राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बनकर एक-दूसरे को पछाड़ते रहे लेकिन राजनीतिक कड़ुवाहट के लिये जूदेव के मन और जुबान में कोई भेद ना था. पिछले लोकसभा चुनाव में जब उन्होंने डॉ. रेणु जोगी को हराया तो भावनाओं के प्रगटीकरण में वे मुझसे यह कहना नहीं भूले कि 'यदि मैं हार भी जाता तो रेणु जोगी जैसी महिला से हारने का संतोष होता.'
   
जूदेवजी दिल से राजा थे. सडक़ से लेकर संसद तक, आम से लेकर खास तक से खुद आगे बढक़र हाथ मिलाने की उनकी अदा लोगों का दिल जीतती थी. उनकी राजनीतिक पहुंच का असर देखिये कि एनडीए सरकार जाने के बाद जब यूपीए सरकार सत्ता में आई तो छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ भाजपा सांसद का सामान बंगले से उठाकर बाहर फेंकवा दिया गया मगर जूदेव ताउम्र रकाबगंज स्थित अपने उसी बंगले में रहे जो उन्हें केंद्रीय राज्यमंत्री रहते हुए आबंटित हुआ था!  दोस्ती निभाने में या मेहनमानवाजी करने में उनका कोई मुकाबला नहीं था. जिस स्टिंग ऑपरेशन ने उनके राजनैतिक कैरियर पर काला धब्बा लगा दिया, उस साजिश के तथाकथित दोषी नटवर रतेरिया को-परिवार और मित्रों के लाख विरोध के बावजूद-अपने से कभी जुदा नहीं होने दिया. हालांकि इस बड़ी चूक ने उनके मुख्यमंत्री बनने के सपने को चकनाचूर कर दिया. सिद्धांतों और पार्टी की इज्जत के लिये जूदेव 'सिंह' की तरह लड़े. सन् 2003 में जोगी सरकार के खिलाफ ताल ठोंकने की बारी आई तो उन्होंने अपनी मूंछें दांव पर लगाकर पार्टी को ऐतिहासिक जीत दिलवाई.

अपने हमसफरों के लिये वे किसी भी स्तर की लड़ाई लड़ लेते थे. राज्य में भाजपा की सरकार दस सालों से चल रही है और मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्री तक से उनके कई मतभेद थे मगर पार्टी की इज्जत की खातिर दिलीप ंिसह जूदेव ने सार्वजनिक तौर पर कभी खुलकर कुछ नहीं कहा. मगर पिछले साल ही उनके बिलासपुर के एक समर्थक पर जब पुलिसिया अत्याचार हुआ और सरकार ने उनकी बातों पर कान नहीं धरे तो जूदेव प्रशासनिक आतंकवाद के खिलाफ जमकर दहाड़े. हमारे अजीज जूदेवजी तो चले गये लेकिन युद्धवीर सिंह के लिये एक निर्मम सच्चाई यह है कि वे एक ऐसे कुरूक्षेत्र में खड़े हैं जहां परिवार से लेकर क्षेत्र की जनता के लिए, अपने राजनैतिक कैरियर और पिता के सपनों को पूरा करने के लिए हर मोर्चे पर लडऩा-जीतना होगा. उम्मीद की छतरी हमने भी तानी है कि अपने नाम के मुताबिक युद्धवीर, इस महासमर में विजयी होकर निकलेंगे. गम और संकट की इस घड़ी में फिलहाल एक ही वादा : हम आपके साथ है!

अनिल द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शोधार्थी हैं.

Mobile : 09826550374

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Anil Dwivedi
Spl. Correspondent, Chhattisgarh
The Sunday Indian,
09826550374

 

 

 

 

Friday, August 16, 2013

Quotes




જો કોઇ વ્યક્તિ ખરેખર કંઇક હાંસલ કરતો હોય છે ત્યારે

આખું વિશ્વ એક થઇને તેને તેનું સ્વપ્ન સાકાર કરવામાં મદદ કરતું હોય છે.

 

જે વ્યક્તિ ને પોતાનું કોઈ લક્ષ્ય નથી હોતું તે હંમેશા બીજાના લક્ષ્ય માટે કામ કરતો રહે છે.

 

વિચાર ગમે તેટલો જાગૃત અને ઊંચો હોય,

પણ જ્યાં સુધી કાર્યાન્વિત ન થાય ત્યાં સુધી એની કોઈ જ કિંમત નથી.

 

વિશ્વને બદલવાનો પ્રયત્ન ન કરો.

પ્રયત્ન કરવો હોય તો લોકોના વિચારોને બદલવાનો પ્રયત્ન કરો. કારણ કે,

લોકોના વિચારો બદલાશે તો વિશ્વ પણ બદલાશે.

 

આ જગતમાં પરોપકાર સિવાય કોઈ ધર્મ નથી અને બીજાને દુ:ખ આપવા સમાન કોઈ પાપ નથી.

 

જો તમે એ વાત ન જાણતા હોવ કે લોકો તમારામાં શું જુએ છે તો એક અરિસા સામે ઉભા રહી જાઓ.

તમે તમારી અંદર જે નિહાળશો એ જ બાબત લોકો પણ તમારામાં નિહાળશે

 

 

ખોટી વિચારસરણીવાળા લોકો તમારામાં કંઇક સારું હશે તો પણ તમને નફરત કરશે

અને સારી વિચારસરણીવાળા લોકો તમારામાં કંઇક ખૂટતું હશે તો પણ તમારો આદર કરશે

Wednesday, August 14, 2013

Sardar patel Ane Bhartiya Sangh Vilinikaran


- સાધના
ઑપરેશન પોલો
હૈદરાબાદી હિન્દુઓને નિઝામના સાંપ્રદાયિક સકંજામાંથી છોડાવી, રાજ્યને ભારતીય સંઘમાં ભેળવવા માટે ચલાવવામાં આવેલું ભારતીય સૈન્યનું અભૂતપૂર્વ મિલિટરી અભિયાન
<image001.jpg>સરદાર વલ્લભભાઈ પટેલના સ્વતંત્ર ભારતના ગૃહમંત્રી બનતાં તેઓએ સૌપ્રથમ કામ પોતાના મંત્રાલયમાં 'સ્ટેટ્સ ડિપાર્ટમેન્ટ'ના ગઠનનું કર્યંુ; જેનો ઉદ્દેશ્ય દેશનાં 564 દેશી રજવાડાંઓના એકીકરણનો હતો. સ્વતંત્ર ભારતના મહત્ત્વપૂર્ણ દેશી રજવાડાંઓમાંથી હૈદરાબાદ, જમ્મુ - કાશ્મીર, ભોપાલ અને ત્રાવણકોર આ ચાર રજવાડાંઓએ ભારતમાં વિલિનીકરણ માટે અનિચ્છા વ્યક્ત કરી હતી. આમાંથી એકમાત્ર હૈદરાબાદ વિરુદ્ધ જ ભારત સરકારને સૈન્યપ્રયોગ કરવાની જરૂર પડી હતી.
એ સમયે હૈદરાબાદ રાજ્ય એ ભારતના સૌથી સમૃદ્ધ અને વિકસિત રાજ્યોમાંનું એક રાજ્ય ગણાતું હતું, તેથી સ્વાભાવિક રીતે જ તેને પોતાનામાં સમાવી લેવા ભારત અને પાકિસ્તાનને વિશેષ રસ હોય. 1948માં હૈદરાબાદનો સાતમો નિઝામ મિર ઓસ્માનઅલીખાં ભારતના સૌથી ધનવાન રાજવીઓમાંના એક હતા, 82,698 સ્ક્વેર માઈલના વિસ્તારમાં હૈદરાબાદ રિયાસત ફેલાયેલી હતી. 16.34 લાખની વસ્તી (1941ના આંકડા પ્રમાણે)માં 85% હિન્દુઓ, 12 ટકા મુસ્લિમો, અન્ય 3 ટકા હતા. આ ઉપરાંત હૈદરાબાદને પોતાની અરલાઈન્સ સેવા, ટેલિકામ્યુનિકેશન સિસ્ટમ, રેલવે નેટવર્ક, પોસ્ટલ સેવા, ચલણી નાણું અને બ્રોડકાસ્ટિંગ સિસ્ટમ પણ હતી. જોકે હૈદરાબાદ પર એક મુસ્લિમ રાજવી રાજ કરતો હોવાથી અહીંના હિન્દુ સમુદાય વિરુદ્ધ સાંપ્રદાયિક ભેદભાવનો લાંબો ઇતિહાસ રહ્યો છે. જે તે વખતના વિવિધ ક્ષેત્રમાં હિન્દુ સમુદાયની ભાગીદારીના આંકડા જ સ્પષ્ટ કરે છે. 1268ના સૈન્યમાં 421 જેટલા મુસ્લિમોની સામે માત્ર 121 હિન્દુઓ જ હતા. રાજ્યના મહત્ત્વના હોદ્દાઓ 59 મુસ્લિમોની સામે માત્ર પાંચ જ હિન્દુઓ હતા, જ્યારે 38 અન્ય ધર્મી હતા. રાજ્યની 40 ટકા જમીન પર નિઝામ અને 12 ટકા પર મુસ્લિમોનો કબજો હતો.
નિઝામના આ સાંપ્રદાયિક ભેદભાવ અને ગેરવહીવટને કારણે હૈદરાબાદના હિન્દુ જનમાનસમાં નિઝામ પ્રત્યે છૂપો વિદ્રોહ તો અગાઉથી જ ધધકતો હતો, પરંતુ 1947ના ભાગલા અને 1947-48 ભારતની આઝાદી અને દેશી રાજ્યોના ભારતમાં વિલીનીકરણ દરમિયાન ક્યાંક ક્યાંક જાહેરમાં પણ દેખાવા માંડ્યો હતો. નિઝામને પણ આનો અંદેશો આવી જતાં ખૂબ જ ચાલાકીપૂર્વક તેણે હૈદરાબાદના કટ્ટરવાદી સંગઠન મજલિસ - એ - ઈત્તેહદહલ મુસલમિના (એમ. આઈ. એમ.)ના કાસિમ રિઝવી સાથે સમજૂતી કરી તેના 2,00,000 (બે લાખ) જેટલા સ્વૈચ્છિક રજાકારોને માન્યતા આપી દઈ હિન્દુ જનતા પર ભૂખ્યા વરૂઓની માફક છોડી દીધા. સામે અહીંની હિન્દુ જનતા પણ પારાવાર અત્યાચારોની વચ્ચે હૈદરાબાદના ભારતમાં વિલીનીકરણનું જોરદાર સમર્થન કરતી રહી.
હૈદરાબાદમાં નિઝામ સમર્થિત રઝાકારોના ગેરમુસ્લિમો પર અત્યાચારો સતત વધી રહ્યા હતા. પરિણામે તે વખતના ભારતના તત્કાલીન ગૃહમંત્રી સરદાર વલ્લભભાઈ પટેલ, નિઝામ જો વાતચીત અને શાંતિથી ભારત સાથે સમજૂતી કરવા તૈયાર ન થાય તો કઈ હદે કડક પગલાં લેવાં તે અંગે ચિંતન કરી રહ્યા હતા. ભારત સરકાર હૈદરાબાદ વિરુદ્ધ કડક પગલાં લેવાનું મન બનાવી રહી છે, તેના સમાચાર મળતાં જ હૈદરાબાદના નિઝામે હૈદરાબાદના ભારત સાથેના તમામ આર્થિક વ્યવહારો સ્થગિત કરી દીધા અને રાજ્યમાં ભારતના ચલણને ગેરકાનૂની ઘોષિત કરી દીધું. એટલું જ નહિ તેણે ભારતની વિરુદ્ધ પાકિસ્તાનને 20 કરોડ રૂપિયાની સહાય પણ કરી. આમ છતાં પણ ગૃહમંત્રી સરદાર વલ્લભભાઈ પટેલ હજુ પણ સમસ્યાનું સમાધાન શાંતિથી નીકળે તેવી ઇચ્છાથી તેઓએ 16 એપ્રિલ, 1948ના રોજ નિઝામના સલાહકાર લાયક અલીને ચર્ચા કરવા બોલાવ્યા. પાકિસ્તાન અને અરબ દેશોના પીઠબળ અને બે લાખ જેટલા રઝાકારોના સમર્થનને કારણે તેઓનો આત્મવિશ્ર્વાસ અભિમાન બની છલકતો હતો. વાતચીત દરમિયાન તેઓએ પોતાના તેવર અને હૈદરાબાદ રિયાસતના ઇરાદાઓ સ્પષ્ટ કરતાં ધમકીભર્યા અંદાજમાં ચેતવણી ઉચ્ચારી કે ભારતીય ફોજ જો હૈદરાબાદમાં દાખલ થવાની ગુસ્તાખી કરશે તો, તેઓના હાથમાં ત્યાં વસતા હિન્દુઓનાં હાડકાં અને રાખ સિવાય કશું જ નહીં આવે. હવે સરદાર પટેલને પણ તેમનો મિજાજ બતાવવા મજબૂર થવું પડ્યું. બરાબર એ જ અંદાજમાં તેઓએ લાયક અલીને કહ્યું, તમે જાણો છો પરિસ્થિતિ કોની તરફેણમાં છે અને જો ત્યાંના હિન્દુઓને કાંઈ પણ થયું તો નિઝામ અને તેના ખાનદાનનું ભવિષ્ય શું હશે એ પણ તમે જાણો છો.
સરદાર પટેલનું વલણ જોઈ અત્યાર સુધી અતિ આત્મવિશ્ર્વાસમાં રાચતા લાયક અલીના તેવર ઢીલા પડ્યા અને ધમકીઓના બદલે તેઓએ તત્કાલીન વડાપ્રધાન પંડિત નહેરુ પર હૈદરાબાદ વિવાદને પણ સંયુક્ત રાષ્ટ્રસંઘમાં લઈ જવા દબાણ કરવાની નીતિ અપ્નાવી. નહેરુ પણ આ વિવાદ સંયુક્ત રાષ્ટ્રસંઘમાં લઈ જવા માંગતા હતા, પરંતુ સરદારે હૈદરાબાદ પર આક્રમણ કરી ભારતમાં તેને ભેળવી લેવાનું મન બનાવી લીધું હતું. નહેરુને જ્યારે સરદારની આ રણનીતિની ખબર પડી ત્યારે તેઓએ સરદારને ચેતવણી આપી કે જો આમ થશે તો હૈદરાબાદનાં વિમાનો બામ્બે, મદ્રાસ, કલકત્તા અને દિલ્હી જેવાં શહેરો પર બામ્બ ઝીંકશે, બંને બાજુમાં મુસ્લિમોમાં ભારે રોષ ફાટી નીકળશે અને પાકિસ્તાન પણ આ કાર્યવાહી વિરુદ્ધ ભારત સામે યુદ્ધમાં ઝંપલાવશે, પરિણામે બંને બાજુ ભારે ખાનાખરાબી સર્જાશે. માટે આ વિવાદને સંયુક્ત રાષ્ટ્રસંઘમાં લઈ જવો જ શ્રેષ્ઠ વિકલ્પ છે.
નિઝામ અને લાયક અલીની આડોડાઈ અને નહેરુની કાયરતા અને મૂર્ખામીથી સરદાર વલ્લભભાઈ પટેલને સ્પષ્ટપણે લાગી રહ્યું હતું, કે જો વેળાસર હૈદરાબાદ મુદ્દે કોઈ નિર્ણાયક પગલાં લેવામાં નહીં આવે તો હૈદરાબાદથી હાથ ધોવાનો વારો આવશે અને તેથી પણ વધુ ત્યાંની 85% હિન્દુ જનતાનું જીવવું નરક બની જશે. હવે સરદાર પટેલ સમક્ષ અંતિમ એક જ વિકલ્પ બચ્યો હતો. હૈદરાબાદ વિરુદ્ધ સૈન્ય કાર્યવાહી. 9 ડિસેમ્બરે સરદાર પટેલે નહેરુ ગાંધીની અનિચ્છા છતાં તમામ બાબતો પર સાવધાનીપૂર્વક સમીક્ષા કરી ભારતીય સૈન્યને હૈદરાબાદ તરફ કૂચ કરવાના આદેશ આપ્યા. નહેરુ - ગાંધીની નારાજગી વધી. સરદારે કહ્યું, સૈન્ય નીકળી ગયું છે. હવે કાંઈ જ નહીં થાય.
ભારતીય સૈન્યનું નેતૃત્વ જનરલ જે. એન. ચૌધરી કરી રહ્યા હતા. ભારતીય સેના મુખ્યાલય દ્વારા આ ઑપરેશનનું નામ ઑપરેશન 'પોલો' (તે સમયે હૈદરાબાદ રાજ્યને પોલો રમતની રાજધાની કહેવાતું. અહીં પોલો ગેમ્સના 17 જેટલાં મેદાનો હતાં.) રાખવામાં આવ્યું.
<image002.jpg>ભારતીય સૈન્ય 13 સપ્ટેમ્બરના રોજ હૈદરાબાદના નાલદુર્ગ (સોલાપુર)ના રસ્તેથી હૈદરાબાદમાં પ્રવેશ્યું, જ્યાં શરૂઆતમાં રઝાકારો અને નિઝામના સૈન્ય તરફથી પડકાર મળ્યો, ત્યારબાદ 14 સપ્ટેમ્બરે પણ ભારતીય ફૌજને દુશ્મનોનો ઠીક-ઠીક પડકાર મળ્યો, પરંતુ બીજા દિવસના અંત સુધીમાં દુશ્મનોના ટાંટિયા અને ઇરાદા બંને ઢીલા પડવા લાગ્યા હતા. ભારતીય સૈન્યને ખૂબ જ ઓછું નુકસાન થઈ રહ્યું હતું, જ્યારે સામા પક્ષે દુશ્મનો(રઝાકારો)ના અવ્યવસ્થિત અભિયાન અને અનુશાસનની ખામીના કારણે ભારે નુકસાન થઈ રહ્યું હતું. પરિણામે 17 સપ્ટેમ્બર, 1948 રોજ હૈદરાબાદના સૈન્યે પોતાનાં હથિયાર હેઠાં મૂકી દઈ શરણાગતી સ્વીકારી, પરંતુ ત્યાં સુધીમાં ભારતીય સેનાએ 800થી વધુ રઝાકારોને ઢાળી દીધા હતા. બાકી બચેલા સામાન્ય મુસ્લિમોમાં ભળી ગયા હતા તો કેટલાક પાકિસ્તાન ભાગી ગયા હતા. હૈદરાબાદના સૈન્યના આત્મસમર્પણ બાદ લાયક અલી અને નિઝામે પણ હાર સ્વીકારી લીધી. લાયક અલીએ નિઝામને પોતાનું રાજીનામું સોંપ્યું અને નિઝામે રઝાકારો પર પ્રતિબંધ લગાવવાની જાહેરાત કરી.
18 સપ્ટેમ્બર, 1948ના રોજ ભારતીય સૈન્યે ઑપરેશન 'પોલો' સફળતાપૂર્વક પૂરું થયાની જાહેરાત કરી. આમ આ ઑપરેશન મુશ્કિલથી 108 કલાક ચાલ્યું હતું. આટલા ટૂંકા ગાળામાં હૈદરાબાદનું સૈન્ય અને પાકિસ્તાન અને આરબ દેશોના જોરે કૂદતા રઝાકારો ભારતના શરણે આવી જશે એની કલ્પ્ના પણ કોઈએ નહોતી કરી, પરંતુ લોખંડી પુરુષ સરદાર પટેલ અને  ભારતના વીર જવાનોએ એ કરી બતાવ્યું હતું.
મજાની વાત એ છે કે, જે સાંપ્રદાયિક રમખાણો ફાટી નીકળવાના ભયે અને પાકિસ્તાન ભારત સામે યુદ્ધે ચડશેનો ભય બતાવી પંડિતજી સરદારને કોઈ પણ ભોગે ઑપરેશન પોલો રોકી દેવાની જીદ કરતા હતા, પરંતુ આ દરમિયાન ભારતમાં એક પણ જગ્યાએ ન તો સાંપ્રદાયિક છમકલું થયું કે ન તો પાકિસ્તાન તરફથી ભારત વિરુદ્ધ કોઈ હલચલ થઈ.
- ટીમ સાધના