>
> "बलिदान केवल बलिदान"- चित्तौड़ की स्वतंत्रता देवी बलिदान चाहती है.
> बादल उमड़े थे, बिजलियां कड़की थीं और घोर अंधकार छा गया था. अपवित्रता
> पवित्रता पर कब्जा करना चाहती थी और अनाचार आचार और व्यवहार की ईंट से
> ईंट बजा देने वाला था. हृदय कांप उठे थे, अशांति की लहरें बड़े जोरों से
> शांति के किले के कँगूरों को एक-एक करके ढा रही थीं. सूर्यदेव भी अपने
> वंशजों को सदा के लिये अंधकार में छोड़ देने के लिये तैयार थे और
> चित्तौड़ की दीवारें भी ऊँचा सिर रखते हुए नीची नजर कर चुकी थीं. बेढब
> बाजी लगी थी. पद्ममिनी का दाँव था. पाँसे उलटे पड़ रहे थे. लेकिन रुख
> बदला. किसी की दया या कृपा से नहीं और किसी की कमजोरी या नीचता से भी
> नहीं. रक्त की वर्षा हो गयी. रक्त की प्यासी भूमि की प्यास मिट गयी.
> चित्तौड़ की देवियों को राख का ढेर होते देख कर चित्तौड़ की
> स्वतंत्रता देवी के हृदय का ताप मिट गया.
>
> फिर वही दृश्य और फिर वही कार्य. समय के पहिये घूमे और चित्तौड़ की
> स्वतंत्रता देवी ने, दया से या निर्दयता से, फिर अपना खप्पर हाथ में ले
> लिया. वीरों ने फिर उसे अपने अमूल्य खून से भर दिया. लेकिन जयमल और उसके
> वीर साथियों का रक्त उसकी प्यास को न बुझा सका. चित्तौड़ की देवियों
> ने अपने कोमल शरीरों को उसके लिये अग्नि के सुपुर्द किया. लेकिन उन्हें
> मुट्ठी-भर ही खाक में पलट जाते हुए देख कर उसके हृदय की जलन और बढ़ी, और
> इतनी बढ़ी कि वह स्वयं चित्तौड़ से आगे बढ़ गयी. चित्तौड़ खाली हुआ.
> अकबर का झंडा उस पर फहराने लगा. चित्तौड़ के दरोदीवार ने आँसू बहाये.
> हाथ उठा कर उन्होंने अपने कुल-संरक्षक सूर्य और गंभीर आकाश की दुहाइयाँ
> दीं, लेकिन सूर्य से न किसी अग्नि की चिनगारी ने गिर कर इस्लामी झंडे को
> जला दिया और न आकाश की गंभीरता ही ने उसकी दासता की मात्रा को कम किया.
> चित्तौड़ की स्वतंत्रता देवी चाहती है, "बलिदान"!
>
> "उदयसिंह! आगे बढ़ और अपने प्राण उसकी पवित्र वेदी पर कुर्बान कर. लेकिन
> अरे! यह क्या? देवी की प्रतिष्ठा करने के लिये उठ कर आगे बढ़ने के
> बजाय तू पीठ दे कर भागता है! याद रख, तेरी इस भीरुता का फल अच्छा न होगा
> और आने वाली संतानें बड़ी ही शर्म से तेरा नाम लेंगी. सचमुच वह दिन
> चित्तौड़ के लिये बड़ा ही आभागा था, जिस दिन पन्ना ने तेरे लिये अपने
> बच्चे के हृदय में कटारी घुसने दी. हत्यारे का शिकार तो तुझी को होना
> था, जिससे फिर चित्तौड़ की लाज का शिकार तू इस निर्लज्जता के साथ न
> करने पाता. चित्तौड़ ने स्वतंत्रता के दिन भोगे थे और अब कालचक्र तेरी
> आड़ ले कर उसे परतंत्रता की सुनहरी जंजीर से जकड़ने के लिये आगे बढ़ा है.
> हे भीरु और पतित आत्मा! चल, आगे बढ़ और दूसरे के लिये स्थान छोड़!
> ईश्वर के लिये नहीं, देश और जाति के लिये नहीं. जिन्होंने तेरे
> पूर्वजों की आन-बान कायम रखने के लिये रणकुंड में अपनी आहुति दे दी थी,
> बल्कि अपनी ही आत्मा की शांति के लिये. जा, इस संसार से उठ जा और उस
> महापुरुष के लिये स्थान खाली कर, जिसके और राणा संग्रामसिंह के बीच में,
> यदि तूने जन्म लेने का कष्ट न उठाया होता, तो चित्तौड़ को अपनी
> स्वाधीनता शत्रुओं के हाथ मिट्ठी के मोल न देनी पड़ती".
>
> "आओ प्रताप, आओ, लेकिन पहले परीक्षा दो. स्वतंत्रता देवी के पवित्र मंदिर
> में उनके लिये स्थान नहीं, जिनके हृदय का स्थान छोटा है. कैसे परीक्षा
> दोगे? अपने सिर को कटा कर नहीं, बल्कि अपने सिर को अपने धड़ पर कायम रख
> कर, बराबर उसके काटे जाने का कष्ट सहते हुए, महलों ही को छोड़ कर नहीं,
> लेकिन इस भीष्म शपथ को ले कर कि जब तक चित्तौड़ स्वाधीन नहीं होता, जब
> तक उसकी दीवारें सिर उठा कर संसार के साथ नजर न मिला सकें, जब तक उन वीर
> पुरुषों और वीर स्त्रियों की आत्मायें, जिनके खून से चित्तौड़ की भूमि
> सिंची हुई है, अपने मनोवांछित कामों को पूरा होते देख कर प्रसन्न न हो
> जायें, तब तक फूस पर सोयेंगें, पत्तों पर खायेंगे और शारीरिक सुखों का
> स्वप्नों में भी खयाल न करेंगे". तपस्या का यही अंत नहीं. जो सिर
> स्वतंत्रता देवी के सामने झुकाए याद रखो, उसे अधिकार नहीं कि संसार की
> किसी शक्ति के सामने झुके. तलवार की धार पर चलना है, लेकिन याद रखो,
> तुम्हारे मुँह से उफ् भी निकली, और तुम गये. ऐसे जाओगे कि कहीं भी पता न
> लगेगा और अपने साथ ही कितनी ही आशाओं और देश के कितने ही शुभ गुणों को
> लेते जाओगे".
>
> अच्छा आदर-सत्कार पाने पर विभीषण मानसिंह चित्तौड़ के कुमार से बोला-
> "राणा जी के सिर में जो दर्द है, उसकी दवा ले कर शीघ्र ही लौटूँगा".
> विभीषण-चिकित्सक मानसिंह शीघ्र ही लौटा. हल्दीघाटी के मैदान ने इस
> सुयोग्य चिकित्सक का आव्हान किया. प्रताप भी अपनी कठिनाइयों का पहला
> पाठ पढ़ने के लिये इस रणक्षेत्र की ओर आगे बढ़ा. 22000 साथी, लेकिन अंत
> में 8000 ही बचे, शेष सब प्रताप को गुरु-दक्षिणा में देने पड़े. घमासान
> युद्ध! प्राणों का बाजार पूरा गरम! भीषणता और उसका सच्चा महत्व उसी समय
> समझ सकते हो, जब एक किसान की कुटी की शांति और सौम्यता से इस दृश्य की
> तुलना करो. मनुष्य की पाशविक शक्ति का पूरा नमूना, लेकिन साथ ही संसार
> के उज्जवल गुणों का पूरा खजाना. सैनिक मरते हुए एक पर एक गिर रहे हैं.
> ढाल-लेकिन अंत में कोमल शरीर ही ढाल का काम देते हैं. तलवार-मनुष्य के
> रक्त की तरलता देख कर उसका पानी और भी तरल हो जाता है. बर्छियाँ-जरा-सा
> भी अन्याय नहीं करतीं. इस यज्ञ-कुंड में, प्रताप, तुम अपनी जान की
> बार-बार आहुति दे रहे हो. लेकिन तुम इस तरह से छुटकारा नहीं पा सकते,
> तुम्हें संसार में रह कर संसार से संग्राम करना है. मानसिंह, लेकिन वह
> विभीषण के हवाले कर प्रताप के सामने न आ सका. ओह! सलीम बच्चा है, छोड़ो
> प्रताप, उसे छोड़ो. आह, अब तुम बेतरह घिर गये. तुम अकेले और ये इस्लामी
> सिपाही सैकड़ों! तुम्हारा मुकुट इस समय तुम्हारा शत्रु हो गया है. फेंक
> दो उसे. लेकिन कितने मारोगे? एक, दो, तीन. अरे, वे आते ही जाते हैं, अब
> भी फेंक दो, फेंको भी देश और जाति को, नहीं संसार को तुम्हारी जान
> तुम्हारे सोने के तुच्छ मुकुट से ज्यादा प्यारी है. नहीं फेंकोगे?
> अच्छा राजपूत वीरो, आगे बढ़ो! देखो, तुम्हारा अधिपति मुफ्त ही में जा
> रहा है. बढ़ो आगे, बचाओ, बचाओ. हाँ, सदरी के झाला! तुम, हाँ बढ़ो, बढ़ो
> बसठी के झाला के सिर पर मुकुट है. मुगल तलवारें झाला पर पड़ने लगीं.
> प्रताप को उन्होंने छोड़ दिया. एक जान के बदले दूसरी जान. झाला ने अपनी
> जान दे कर अधिक कीमती जान बचा ली. रक्त-नदी बह उठी. लेकिन, चित्तौड़ की
> स्वतंत्रता देवी की प्यास न बुझी. अभी तो परीक्षा आरंभ ही हुई है.
> प्रताप, एक किले के बाद दूसरा किला दो. अब किले नहीं रहे तो जाओ,
> पहाड़ियों और जंगलों की खाक छानो. ऐं, रसद बंद हो गयी, तो क्या हर्ज?
> पत्ते कहीं नहीं गये, जंगल का साया और कोदों का कोई हाथ न पकड़ लेगा. आज
> यहाँ, तो कल वहाँ, घास की रोटियाँ खाते ही मुगल आ पहुँचे. लड़ते-भिड़ते
> निकल चलो. सोने का बिछौना नहीं, कोई हर्ज नहीं. बड़ों के लिये पत्थर की
> चट्टानों और बच्चों के लिये बाँस के पालने ही सही. अँधेरी रातें, धधकती
> दुपहरिया, कड़ाके का जाड़ा, वर्षा की रिमझिम, आत्मा की आग और परमात्मा
> की उदासीनता. साथियों का मरते जाना और सैनिकों का कम होते जाना, कठिन
> तपस्या और कठोर व्रत. आराधना और स्वतंत्रता देवी की पूरी पक्की
> आराधना. चंचलता फटकने न पावे और अकर्मण्यता पास न आने पावे. एक दिन नहीं
> और दो दिन भी नहीं, एक साथ पच्चीस वर्ष तक.
>
> यह कैसी चीत्कार? चित्तौड़ की राजकुमारी के हाथ से एक वन-बिलाव घास-पात
> की रोटी छीन ले गया. राजकुमारी चीख उठी. बिलाव के डर से नहीं, भूख के डर
> से. राजकुमारी और रोटी के लिये तरसे, लेकिन प्रताप, यह क्या? तुम्हारी
> आत्मा काँप उठी? लड़की की वेदना देख कर और परिवार के कष्टों से क्या
> अब स्वतंत्रता देवी को अंतिम नमस्कार करना चाहते हो? शांत हो और जरा
> विचारो. देखो, वह तुम्हारे शत्रु, नहीं, स्वतंत्रता के शत्रु अपने
> खेमों में घी के दीप जला रहे हैं. क्यों? तुम्हारी हिम्मत टूटती हुई
> देख कर. इन दीपकों के घी और बत्ती के साथ, सच बताओ, तुम्हारा हृदय जला
> कि नहीं? हाँ, जला और अब उस जले पर नमक छिड़कने की जरूरत नहीं.
>
> हो चुका. बस, चित्तौड़ की पवित्र भूमि, तुझे नमस्कार है. तुझे छोड़ता
> हूँ. लेकिन स्वतंत्रता की देवी का पल्ला नहीं छोड़ता. जो था, सो सब इस
> देवी को अर्पण हो चुका. शरीर में जो हड्डियाँ बाकी हैं, वे भी उसके अर्पण
> हो चुकी हैं. जननी जन्मभूमि! अंतिम दर्शन है. ले, आज्ञा दे!
>
> प्रताप, आगे मत बढ़ो. तुम्हारी सच्ची माता तुम्हें बुला रही है.
> हरिश्चंद्र अपनी दासता के कर्तव्य में, जब हद से ज़्यादा आगे बढ़ गये
> थे, तब कहते हैं कि निराकर प्रभु ने आ कर उनका हाथ पकड़ा था. मेवाड़ की
> भूमि भी तेरा पैर पकड़ रही है. देख, उसका एक सपूत आगे बढ़ता है. भामाशाह
> तेरे पैर थामता है. देश को मत छोड़, वह तुझे छोड़ने के लिये तैयार नहीं.
> भाग्य भी अभी तक तुझे छोड़े था, लेकिन अब वह प्रार्थना करता है, उसे मत
> छोड़. ले धन! पच्चीस हजार आदमी इस धन से बारह वर्ष तक खा सकेंगे. तेरी
> साहस और तेरी दृढ़ता और उदारता के सामने उसका आसन डोल उठा है. देख, इस
> समय उसके हाथ में खप्पर नहीं, उसके हृदय में जलन नहीं, शांति से वह
> मुस्करा रही है, उसके हाथों में माला है और देख, वह तेरे गले में गिरती
> है.
>
> महान् पुरुष, निस्संदेह महान्, पुरुष. भारतीय इतिहास के किसी खून में
> इतनी चमक है? स्वतंत्रता के लिये किसी ने इतनी कठिन परीक्षा दी? जननी
> जन्मभूमि के लिये किसने इतनी तपस्या की? देशभक्त, लेकिन देश पर अहसान
> जताने वाला नहीं, पूरा राजा, लेकिन स्वेच्छाचारी नहीं. उसकी उदारता और
> दृढ़ता का सिक्का शत्रुओं तक ने माना. शत्रु से मिले भाई शक्तिसिंह पर
> उसकी दृढ़ता का जादू चल गया. अकबर का दरबारी पृथ्वीराज उसकी कीर्ति गाता
> था. भील उसके इशारे के बंदे थे. भामाशाह ने उसके पैरों पर सब कुछ रख
> दिया. विभीषण मानसिंह उससे नजर नहीं मिला सकता था. अकबर उसका लोहा मानता
> था. खानखाना उसकी तारीफ में पद्य रचना करना अपना पुण्य कार्य समझता था.
> जानवर भी उसे प्यार करते थे और घोड़े चेतक ने उसके ऊपर अपनी जान
> न्योछावर कर दी थी. स्वतंत्रता देवी का वह प्यारा था और वह उसे प्यारी
> थी. चित्तौड़ का वह दुलारा था और चित्तौड़ की भूमि उसे दुलारी थी. उदार
> इतना कि बेगमें पकड़ी गयीं और शान-सहित वापस भेज दी गयीं. सेनापति फरीद
> खाँ ने कसम खायी कि प्रताप के खून से मेरी तलवार नहायेगी. प्रताप ने
> सेनापति को पकड़ कर छोड़ दिया.
>
> अंतिम काल. जान नहीं निकलती. लेकिन, राणाजी, क्यों? मुझे विश्वास नहीं
> कि मेरे बाद चित्तौड़ की स्वाधनीता कायम रह सके. क्यों? राजकुमार
> अमरसिंह इतना दृढ़ नहीं. राजकुमार दृढ़ न सही, मेवाड़ के वे सरदार राणाजी
> की कसम खाते हैं कि हम अपने खून से स्वतंत्रता के उस बीज को, जो तूने
> बोया, सींचेंगे. शांति और उसकी आत्मा शरीर से बाहर हो कर स्वतंत्रता
> देवी की पवित्र गोद में जा विराजी. प्रताप! हमारे देश का प्रताप! हमारी
> जाति का प्रताप! दृढ़ता और उदारता का प्रताप! तू नहीं है, केवल तेरा यश
> और कीर्ति है. जब तक यह देश है, और जब तक संसार में दृढ़ता, उदारता,
> स्वतंत्रता और तपस्या का आदर है, तब तक हम क्षुद्र प्राणी ही नहीं,
> सारा संसार तुझे आदर की दृष्टि से देखेगा. संसार के किसी भी देश में तू
> होता, तो तेरी पूजा होती और तेरे नाम पर लोग अपने को न्योछावर करते.
> अमेरिका में होता तो वाशिंगटन और अब्राहम लिंकन से तेरी किसी तरह कम पूजा
> न होती. इंग्लैंड में होता तो वेलिंगटन और नेल्सन को तेरे सामने सिर
> झुकाना पड़ता. स्कॉटलैंड में बलस और रॉबर्ट ब्रूस तेरे साथी होते.
> फ्रांस में जोन ऑफ आर्क तेरे टक्कर की गिनी जाती और इटली तुझे मैजिनी के
> मुकाबले में रखती. लेकिन हाँ! हम भारतीय निर्बल आत्माओं के पास है ही
> क्या, जिससे हम तेरी पूजा करें और तेरे नाम की पवित्रता का अनुभव करें!
> एक भारतीय युवक, आँखों में आँसू भरे हुए, अपने हृदय को दबाता हुआ लज्जा
> के साथ तेरी कीर्ति गा नहीं-रो नहीं, कह-भर लेने के सिवा और कर ही क्या
> सकता है?
>
>
>
> गणेश शंकर विद्यार्थी
No comments:
Post a Comment