Wednesday, August 20, 2014

दोगुना शुल्क


 

दोगुना शुल्क
- सीताराम गुप्ता

एक युवक जो कि संगीत में निपुणता प्राप्त करने की इच्छा रखता था अपने क्षेत्र के सबसे महान संगीताचार्य के पास पहुँचा और उनसे बोला, ''आप संगीत के महान आचार्य हैं और संगीत में निपुणता प्राप्त करने में मेरी गहरी रुचि है। इसलिए आप से निवेदन है कि आप मुझे संगीत की शिक्षा प्रदान करने की कृपा करें।''

संगीताचार्य ने कहा कि जब तुम्हारी इतनी उत्कट इच्छा है मुझसे संगीत सीखने की तो आ जाओ, सिखा दूँगा। अब युवक ने आचार्य से पूछा कि इस कार्य के बदले उसे क्या सेवा करनी होगी। आचार्य ने कहा कि कोई ख़ास नहीं मात्र सौ स्वर्ण मुद्राएँ मुझे देनी होंगी।

''सौ स्वर्ण मुद्राएँ हैं तो बहुत ज़्यादा और मुझे संगीत का थोड़ा बहुत ज्ञान भी है पर ठीक है मैं सौ स्वर्ण मुद्राएँ आपकी सेवा में प्रस्तुत कर दूँगा,'' युवक ने कहा। इस पर संगीताचार्य ने कहा,
''यदि तुम्हें पहले से संगीत का थोड़ा-बहुत ज्ञान है तब तो तुम्हें दो सौ स्वर्ण मुद्राएँ देनी होंगी।''
युवक ने हैरानी से पूछा,
''आचार्य ये बात तो गणितीय सिद्धांत के अनुकूल नहीं लगती और मेरी समझ से भी परे है। काम कम होने पर कीमत ज़्यादा?''
आचार्य ने उत्तर दिया,
''काम कम कहाँ है? पहले तुमने जो सीखा है उसे मिटाना, विस्मृत कराना होगा तब फिर नए सिरे से सिखाना प्रारंभ करना पड़ेगा।''

वस्तुत: कुछ नया उपयोगी और महत्वपूर्ण सीखने के लिए सबसे पहले मस्तिष्क को खाली करना, उसे निर्मल करना ज़रूरी है अन्यथा नया ज्ञान उसमें नहीं समा पाएगा। सर्जनात्मकता के विकास और आत्मज्ञान के लिए तो यह अत्यंत अनिवार्य है क्योंकि पहले से भरे हुए पात्र में कुछ भी और डालना असंभव है।



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