Wednesday, March 6, 2013

Fwd: Hindi Bhashya from M G Vaidya


जिहाद और आतंकवाद

 

जिहादी आतंकवादियों ने, हैदराबाद में विस्फोट किए. २१ फरवरी को दिलसुखनगर नामक चहलपहल वाली बस्ती में यह विस्फोट किए गए. उनमें अनेक निरपराध लोग मारे गए. ऐसा क्रौर्य जिहादी भावना से पछाडे हुओं से ही संभव होता है.

 

'राज्य का' प्रयोजन

ऐसा बताया जा रहा है कि, २००१ के दिसंबर में हमारी सार्वभौम संसद पर हमला कर वहॉं सुरक्षा कर्मचारियों की हत्या करने का जो षडयंत्र हुआ, उस षडयंत्र का सूत्रधार अफजल गुरु को फॉंसी देने के कारण, उस फॉंसी का बदला लेने के लिए हैदराबाद में विस्फोट किए गए. यह कारण सच हो सकता है. लेकिन जो स्वयं आतंकवादी है, जिसे दूसरों के प्राणों की परवाह नहीं, उसे फॉंसी देने में शासन से कोई भूल हुई, ऐसा कोई भी नहीं कह सकता. किसी भी पद्धति की शासन व्यवस्था हो, जनतांत्रिक हो, तानाशाही हो या फौजी हो, उसे दंड-व्यवस्था मान्य करनी ही पड़ती है. दंड-व्यवस्था नहीं होगी तो शासन व्यवस्था नहीं रहेगी. 'राज्य' नाम की राजनीतिक व्यवस्था दंड-शक्ति के आधार पर ही खड़ी रह सकती है. 'राज्य' का वही, अधिष्ठान और प्रयोजन भी होता है. जो दंडनीय है, उन्हें राज्य व्यवस्था की ओर से दंड दिया जाना ही चाहिए.

 

न्याय व्यवस्था का लाभ

हमारे देश में, अन्य सुसंस्कृत देशों के समान चलने वाली दंड व्यवस्था है. यहॉं तानाशाही या फौजी शासन नहीं कि, राजकर्ताओं के मन में आया और किसी को भी मार दिया. यहॉं न्याय व्यवस्था है. इस व्यवस्था का संपूर्ण लाभ अफजल गुरु को मिला है. उसे निम्नस्तर की अदालत ने फॉंसी की सज़ा सुनाई थी. उस पर तुरंत अमल नहीं किया गया. उस सज़ा के विरुद्ध वरिष्ठ न्यायालय में जाने का प्रावधान है. उसके अनुसार अफजल गुरु उच्च न्यायालय में गया. वहॉं भी वही सज़ा कायम रखी गई. उसके ऊपर भी एक सर्वोच्च न्यायालय है; वहॉं भी वह गुहार लगा पाया. लेकिन वहॉं भी वही सज़ा कायम रही. हमारी न्याय व्यवस्था में ही, इस निर्णय का पुन: विचार करने की बिनती करने की व्यवस्था है. इस व्यवस्था का भी अफजल ने लाभ लिया. उसके बाद राष्ट्रपति के पास दया की याचिका करने की सुविधा है. उसका लाभ भी अफजल गुरु ने लिया; और अंत में उसकी याचिका नामंजूर करने के बाद उसे फॉंसी पर लटकाया गया. महमद घोरी ने पृथ्वीराज चौहान को, औरंगजेब ने संभाजी महाराज को, मुजीबुर रहमान को फौज ने या झिया-उल-हक ने झुल्फिकारअली भुत्तो को जैसे आनन-फानन में मार डालावैसे अफजल गुरु को नहीं मारा गया. इस कारण उसकी फॉंसी का बदला लेने का प्रयोजन ही नहीं था.

 

वे देशद्रोही ही

लेकिन जिहादी वृत्ति के लोगों को यह मान्य नहीं था. यह अच्छी बात है कि, भारत के अधिकांश मुसलमानों को यह जिहादी आतंकवाद मान्य नहीं है. उन्होंने अफजल की फॉंसी का निषेध नहीं किया. लेकिन हमारे ही देश के एक राज्य में मतलब जम्मू-कश्मीर राज्य में, वास्तव में उस राज्य के एक भाग में, जिहादी आतंकवाद के समर्थक एवं संरक्षक लोग है. अफजल के नाम पर उन्होंने वहॉं की जनता को बंधक बनाया. हड़ताल रखा. उग्र निदर्शन किए. वे सब लोग, सही में भारतीय है ही नहीं. भारत के साथ, जन्म से ही शत्रुता का व्यवहार करने वाले, भारत के साथ शत्रुत्व रखना ही जिनके जीवन का निमित्त और अस्तित्व है, उस पाकिस्तान से प्रेरित, और उसके इशारों पर नाचने वाले है. फिर वे गिलानी हो, उमर फारुख हो, यासिन मलिक हो या अन्य कोई. ये लोग पाकिस्तान सरकार के, वस्तुत: पाकिस्तान में सही में जिसकी सत्ता चलती है, उस पाकिस्तान की फौज के गुलाम है. लोगोंं ने, स्वयंशासन के लिए, चुनकर दिए लोगों का अस्तित्व उन्हें सहन नहीं होता. कश्मीर की घाटी में, लोकनिर्वाचित पंच-सरपंचों के खून हो रहे है. वे पंच-सरपंच भी मुसलमान ही है. गिलानी-फारुख-मलिक ने कभी इन हत्याओं की निंदा करने का समाचार हमने पढ़ा है? ये सब देशद्रोही लोग है, न्याय व्यवस्था के द्रोही है, जनतंत्र के द्रोही है, शांती और व्यवस्था के अनुसार जीवन जीने की चाह रखने वाले अपने मुसलमान भाईयों के भी द्रोही है.

 

मतलबी राजनीति

अफजल गुरु की फॉंसी की सज़ा पर सर्वोच्च न्यायालय की मुहर लगने के बाद, हमारी सरकार ने उस सज़ा पर तुरंत अमल करना चाहिए था. राष्ट्रपति के पास उसकी दया की याचिका पॉंच-छ: वर्ष क्यों पडी रही? इस सज़ा पर तुरंत अमल किया जाता, तो ९ फरवरी के बाद मतलब अफजल को फॉंसी देने के बाद, कश्मीर की घाटी में जो उग्र प्रतिक्रिया प्रकट हुई, वह प्रकट नहीं होती. लेकिन, सरकार चलाने वाली पार्टी की, स्पष्ट कहे तो कॉंग्रेस पार्टी की, राजनीति आडे आई. उसे न्याय-प्रक्रिया की अपेक्षा अपनी वोट बँक कैसे मजबूत रहेगी, इसकी ज्यादा चिंता थी. इस कारण उसने फॉंसी में इतना विलंब किया और अकारण अपने ऊपर हेत्वारोप ओढ लिए. पॉंच-छ: वर्ष राह देखने का कारण, कॉंग्रेस पार्टी कभी भी बता नहीं सकेगी. भारतीय जनता का मत है कि, कॉंग्रेस ने अपनी स्वार्थी, संकुचित राजनीति के लिए, अफजल की फॉंसी में विलंब लगाया. और विलंब करने के बाद जब फॉंसी दी, तब स्वाभाविक ही जनता ने कॉंग्रेस के ऊपर आरोप लगाया कि, राजनीनिक लाभ के लिए सरकार ने अब फॉंसी की सज़ा पर अमल किया. इस आरोप के लिए जनता को दोष देने में मतलब नहीं. कॉंग्रेस सरकार ने स्वयं की कृति से ही यह आरोप अपने ऊपर ओढ लिया है.

 

बकवास

हमारे देश में ढोंगी सेक्युलरवादी लोग है, इस फॉंसी के लिए अभी तक उनका रोना शुरु ही है. कहते है कि, सरकार ने अफजल की पत्नी को उसके फॉंसी की सूचना समय रहते नहीं दी. वैसे सूचना देने में हमें कोई आपत्ति नहीं. लेकिन अगर वह समय रहते नहीं दी गई, तो मानवाधिकार का भंग करने का बहुत बड़ा अपराध हुआ ऐसा हमें नहीं लगता. संसद भवन पर हमला कर, वहॉं के सुरक्षा कर्मचारियों की हत्या करने वाले अफजल के साथियों ने उन कर्मचारियों के परिवारों को, सूचित किया था? उनकी हत्या क्यों की गई? उनका क्या अपराध था? मानवाधिकार मानवों के लिए होते है. अफजल जैसे दानवों के बारे में उन अधिकारों की चर्चा करना अप्रस्तुत है. अफजल गुरु का एक मनोगत, उसकी मृत्यु के बाद कुछ समाचारपत्रों में प्रसिद्ध हुआ है. उसमेंे वह कहता है कि, भारतीय सैनिकों ने कश्मीर की जनता पर जो अन्याय किया, 'निरपराधियों' की हत्या की, उसका बदला लेने के लिए हमने संसद भवन पर हमला किया. कुछ समय के लिए हम इसे सच मान भी ले. फिर अफजल ने, उस संसद ने पारित किए कानून के आधार पर, अपना मुकद्दमा क्यों चलाया? क्यों तीन-तीन याचिकाए की? राष्ट्रपति के पास दया की याचिका क्यों की? पहले ही न्यायालय में, अपनी बदले की भूमिका क्यों स्पष्ट नहीं की? हमें तो लगता है कि, अफजल का वह निवेदन ही बनावट होगा. कश्मीर की घाटी के किसी पाकिस्तानवादी ने उसे बनाकर, प्रकाशित किया होगा. २००१ से यह मुकद्दमा चल रहा है; और अफजल का मनोगत २०१३ में प्रकट हेता है, इसे बकवास के सिवा और क्या अभिधान लगाए?

 

'जिहाद'का पराक्रम

यह सच हो सकता है कि, अफजल गुरु की फॉंसी का बदला लेने के लिए हैदराबाद के विस्फोट कराए गए होगे. बदले को तारतम्य होता ही नहीं. बदले के विस्फोट दिल्ली, मुंबई, बंगलोर में भी हो सकते थे. बदला लेने वालों को हैदराबाद अधिक सुविधाजनक लगा होगा और यह अस्वाभाविक भी नहीं. जहॉं अकबरुद्दीन ओवेसी जैसे, जनप्रतिनिधि के रूप में चुनकर आ सकते है, वह स्थान इन विस्फोटों के लिए अधिक उपयुक्त लगना स्वाभाविक ही मानना चाहिए. मैं इस आतंकवाद को 'जिहादी' आतंकवाद कहता हूँ. कारण इस्लाम में 'जिहाद' को निष्ठावान मुसलमानों का एक कर्तव्य माना गया है. इस 'जिहाद' का पूरा नाम 'जिहाद फि सबिलिल्लाह' है. इस अरबी शब्दावली का अर्थ ''अल्लाह के मार्ग के लिए प्रयत्न'' होता है, ऐसा जानकार बताते है. अल्लाह के मार्ग के लिए प्रयत्न अर्थात् पवित्र ही होगा. इस कारण 'जिहाद'से एक प्रकार की पवित्रता भी जुडी है. 'अल्लाह का मार्ग' अर्थात् अल्लाह के राज्य के विस्तार का मार्ग. इस ध्येय से प्रेरित होकर पैगंबर साहब के अरबस्थान में के अनुयायी, अपनी सेना लेकर दुनिया पादाक्रांत करने निकले. उनके पराक्रम को वंदन करना चाहिए कि, एक सदी में ही, पूरा पश्‍चिम एशिया, उत्तर अफ्रिका और दक्षिण यूरोप -स्पेन से अल्बानिया-चेचेन्या तक- उन्होंने काबीज किया. यह सामान्य बात नहीं. वे सब जिहादी अभियान थे. मतलब जो अल्ला को मानने वाले नहीं थे, मतलब काफीर थे, उनके विरुद्ध के अभियान थे. और काफीर कौन? - अर्थात् जो इस्लाम को नहीं मानते वे.

 

जिहादी क्रौर्य

इतिहास की असंख्य घटनाए हमें बताती है कि, पराभूत होकर पकड़े गए शत्रु ने इस्लाम स्वीकार किया, तो उसे क्षमा मिलती थी. उसने इस्लाम नहीं कबूला, तो उसे कत्ल किया जाता था. इस कत्तल से बचा तो उसे 'जिझिया' देना पडता था. इसमें मुस्लिम इतिहासकारों या राजकर्ताओं को कुछ अनुचित नहीं लगा. निंदनीय लगना तो संभव ही नहीं था. आज भी नहीं लगता. सैनिकों को पराक्रम के लिए उकसाने हेतु आज भी 'जिहाद' का प्रयोग किया जाता है. अब शायद काफीर का अर्थ भी बदल गया है. पाकिस्तान या पश्‍चिम एशिया की ओर नज़र उठाकर देखे. जो मुसलमान हैपवित्र कुरान को मानते है, पैगंबर साहब को मानते है, लेकिन विशिष्ट पंथ नहीं मानते, उन्हें भी काफीर माना जाता है. पाकिस्तान में, कादियानी मुसलमान 'काफीर' माने जाते है. हाल ही में बलुचिस्तान में वहॉं के सुन्नी मुसलमानों ने, आत्मघाती बम विस्फोट कर एक ही दिन में करीब दो सौ शिया पंथीय मुसलमानों की हत्या की, क्या सुन्नीयों ने शियाओं को 'काफीर' माना था, वे ही बता सकेगे. या पाकिस्तान और अफगाणिस्तान के तालिबानी जब अपने ही धर्म-बंधुओं पर छिपकर हमले कर उनकी हत्या करते है, तब वे जिनकी हत्या करते है, उनके लिए किस विशेषण का प्रयोग करते है? सीरिया में फिलहाल मारकाट चल रही है, जिसमें, जानकारों का अंदाज है कि, ७० हजार से अधिक लोग मारे गए, वे सब मुसलमान ही है. सत्तारूढ तानाशाह बशर असाद इस्लाम के एक पंथ का कार्यकर्ता है, तो बागी सब सुन्नी. क्या वे एक-दूसरे को 'काफीर' कहते होगे? पता नहीं. लेकिन दोनों ही 'जिहाद'का नारा अवश्य लगाते होगे.

 

इस्लाम की ही निंदा

यह बताने का प्रयोजन यह कि, 'जिहाद'की नई परिभाषा की जानी चाहिए. वह सही में धार्मिक कृत्य होगा, तो बदला, हत्या, कत्तल से उसे दूर करना चाहिए. कोई भी पवित्र कर्तव्य क्रौर्य से संलग्न नहीं हो सकता. ऐसा कहते है कि, 'जिहाद'का और भी एक अर्थ है. उसका नाम है 'अल्-जिहादुल्-अकबर'. सुफी पंथीय मुसलमान इसका प्रसार करते है, ऐसा कहा जाता है. इसका अर्थ है अपने विकार-वासनाओं के साथ युद्ध. और ऊपर जिस जिहाद का वर्णन किया है, उसका नाम है 'अल्-जिहादुल्-अषघर'. यह आक्रमक जिहाद है. मुल्ला-मौलवी और अन्य मुस्लिम विचारवंतों ने साथ बैठकर 'जिहाद'का कालानुरूप अर्थ स्पष्ट करना चाहिए. पुराना ही शब्द कायम रखकर नया काल-संगत अर्थ लगाना, यह धर्म-सुधार की एक पद्धति ही है. इराक में शियाओं ने सुन्नीयों के विरुद्ध 'जिहाद' पुकारने या बलुचिस्तान में सुन्नीयों ने शियाओं के विरुद्ध 'जिहाद' पुकारने में इस्लाम की ही निंदा है.                 

 

आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई

एक मुद्दा आतंकवाद के विरुद्ध की लड़ाई का भी है. सरकार ने पंथ-संप्रदाय का विचार न कर, आतंकवाद समाप्त करने के लिए ईमानदारी से प्रयास करने चाहिए. उग्र प्रकृति के लोग हर समाज में होते है. हिंदू समाज में भी होगे. कुछ पर मालेगॉंव विस्फोट, समझौता एक्सप्रेस में  विस्फोट आदि आरोप के है. वे सब हिंदू है. उनके मामले अभी भी न्यायालय में नहीं पहुँचे. सरकार त्वरित यह करे; और संपूर्ण न्याय प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद, न्यायालय जो सज़ा सुनाएगा उस पर तुरंत अमल करे. ऐसा कुछ न होते हुए 'हिंदू आतंकवाद', 'भगवा आतंकवाद' का शोर मचाना शुद्ध मूर्खता है. गैर जिम्मेदार तरिके से ऐसा शोर मचाने वाले लोग स्वयं ही स्वयं को अपमानित करते है. यह भान अगर वे रखेगे, तो उसमें उनका कल्याण ही है. और जिस राज्य शासन के वे अंग बने है, उस शासन की शान भी है.

 

- मा. गो. वैद्य

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

babujivaidya@gmail.com

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