हिंदू संस्कृति और स्त्री-पुरुष संबंध
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन जी भागवत के दो वक्तव्यों को कुछ प्रसार माध्यमों ने विकृत रूप देकर, उस वक्तव्य की और उस बहाने संघ की आलोचना करने की खुजली मिटा ली. उसके बाद, उनमें से अनेकों को पश्चाताप हुआ और उन्होंने क्षमायाचना भी की. यह ठीक ही हुआ. श्री भागवत जी का एक वक्तव्य असम के सिल्चर का था, तो दूसरा इंदौर का. सिल्चर के वक्तव्य में एक वाक्य था कि, बलात्कार की घटनाएँ 'इंडिया में' अधिक होती है; 'भारत में' कम. 'इंडिया' मतलब शहर और 'भारत' मतलब ग्रामीण क्षेत्र - ऐसा अर्थ प्रसारमाध्यमों ने लिया. वह श्री मोहन जी को अभिप्रेत होगा ही, ऐसा नहीं. उन्हें 'इंडिया' इस शब्द से पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता से अभिभूत विभाग और 'भारत' शब्द से अपने प्राचीन हिंदू संस्कृति के मूल्यों का पालन करने वाला भाग, यही अभिप्रेत होगा.
संस्कृति के आदर्श
क्या कोई यह अमान्य करेगा कि, पाश्चात्य संस्कृति कहे, या सभ्यता, भोगप्रधान है; तो हिंदू संस्कृति त्यागप्रधान है. हिंदूओं के घरों में दिवारों पर लगे चित्र ही देखें. किसी पुरुष या स्त्रियों के होगे? त्यागी, पराक्रमी, सच्छील व्यक्तियों के चित्र ही दिखेंगे. घटिया सोच रखनेवाले कुछ लोगों के अंत:करण में स्वामी विवेकान्द के चित्र देखकर भी विकृत विचार उत्पन्न हुए और उन्होंने उन विकृत विचारों को शब्द रूप देकर उन्हें चेन्नई से प्रकाशित होने वाले 'हिंदू' इस अंग्रेजी दैनिक के ३ जनवरी के अंक में प्रकाशित भी किया. संपादक को भी अपने समाचारपत्र के 'हिंदू' इस वैशिष्ठ्यपूर्ण नाम के अर्थ का विस्मरण हुआ होगा और उन्होंने वह लेख प्रकाशित किया. बाद में उस लेख में प्रकाशित मत प्रदर्शन की आलोचना करने वाले पत्र भी प्रकाशित किए और इसके लिए 'किन्तु-परन्तु' करते हुए खेद भी प्रकट किया. यह पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों के अनुसार ही हुआ. मुझे यहॉं यही अधोरेखित करना है कि, विकृत व्यवहार के ऐसे अपवादात्मक उदाहरण छोड़ दे और खुले निर्मल मन से विचार करे तो जो चित्र हमारी संस्कृति के मूल्यों का स्मरण और प्रेरणा देने वाले होते है वे ही घरों में दिवारों पर लगाए जाते है. पाश्चात्यों के घर मैंने देखे नहीं. लेकिन वहॉं संस्कृतिभक्ति की अपेक्षा या मूल्यभक्ति की अपेक्षा देहभक्ति अधिक पाई जाती है. इस देहभक्ति की लहर हमारे देश में भी आई है. दूरदर्शन के चॅनेल पर त्वचा को कोमल बनाने वाले प्रसाधनों के विज्ञापन, इसकी साक्ष देगे. हमारे यहॉं संयम की प्रशंसा की जाती है, भोग की नहीं. ऐसे ही व्यक्ति हमारे संस्कृति के आदर्श के रूप में अनुकरणीय माने जाते है.
धर्म-अविरोधी काम
इसका अर्थ, भोग को हमारी समाजव्यवस्था में स्थान नहीं, ऐसा नहीं. स्त्री-पुरुषों के परस्परों के बीच व्यवहार को हमारे यहॉं 'काम' कहा है और चार पुरुषार्थों में उसका भी अंतर्भाव है. 'प्राणिमात्रों में का काम मैं हूँ' ऐसा भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है. लेकिन उस 'काम को' एक विशेषण लगाया है. कोई भी विशेषण वस्तु की व्याप्ति कम करता है, यह सर्वमान्य है. श्रीकृष्ण ने जिस विशेषण का प्रयोग किया है वह है 'धर्माविरुद्ध' मतलब धर्म के अविरुद्ध. 'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ' (अध्याय ७, श्लोक ११) ऐसा वह वचन है. मतलब काम की पूर्तता के लिए, उपभोग के लिए धर्म का मतलब नैतिकता का बंधन है. मदमस्त होते ही तृप्ति करना यह पशु की प्रकृति है. मनुष्य इस प्रकृति से ऊपर उठता है, और संस्कृतिसंपन्न आचरण करता है. कारण कुछ भी हो, सामाजिक दबाव कहे, या पारिवारिक आचरण, इसका प्रभाव ग्रामीण भाग में अधिक दिखाई देता है. यह दबाव कई बार अन्याय का भी कारण बनता है. जैसे हरियाणा में खाप पंचायत के कुछ निर्णय. लेकिन वहॉं भी दबाव होता ही है. धनसंपन्नता से चमकते शहरों में ऐसा दबाव नहीं होता. परिवार देहात में रहता है, इस पारिवारिक चरित्र के कारण ही परिवार टिकता है. शहरों में परिवार टिकते नहीं. इसलिए वहॉं वृद्धाश्रम है. मैं अनेक देहातों में घूमा हूँ. मुझे कहीं भी वृद्धाश्रम नहीं दिखा. मनुष्य नौकरी के कारण, रोजगार के कारण शहर में आता है, तब वह परिवार से दूर हो जाता है. स्वाभाविक पारिवारिक दबाव समाप्त हो जाता है. फिर अपनी वासना पूर्ण करने के लिए उस पर कोई बंधन नहीं होता. साथ में उसके पास पैसा भी रहता है.
श्रीमती केनडी का लेख
मिरांडा केनेडी इस महिला का 'वॉशिंग्टन पोस्ट' इस विख्यात दैनिक में प्रकाशित लेख इस दृष्टि से पढ़ने योग्य है. लेख का शीर्षक है 'Is India's Economic Boom a Threat to Wamen?' शीर्षक का अर्थ है 'भारत की आर्थिक संपन्नता, महिलाओं के लिए खतरा है?' लेखिका ने दिल्ली का ही उदाहरण लेकर बताया है कि, देश में महिलाओं पर होने वाले बलात्कार की घटनाओं में की २५ प्रतिशत घटनाएँ दिल्ली शहर में होती है. (यह लेख
http://articles.washingtonpost.com/2013-01-04/opinions/36208910_1_new-delhi-delhi-residents-rural-migrants पर उपलब्ध है.) इसका अर्थ केवल शहरों में ही ऐसी घटनाएँ होती है, ग्रामीण भाग में नहीं, ऐसा करने की मूर्खता समझदार लोग नहीं करेगे, यह मुझे विश्वास है. 'प्राधान्येन व्यपदेशा:' मतलब प्रधानता से नाम होता है, ऐसा संस्कृत भाषा में एक 'न्याय' ही है. उसके अनुसार अर्थ ले. ९ जनवरी को प्रकाशित हुए मेरे भाष्य में 'संपत्ति और संस्कृति' विषय की चर्चा है. उसकी पुनरुक्ति यहॉं नहीं करता. इतना ही कहता हूँ कि, संपत्ति बढ़ने के साथ संस्कृति नहीं आई, तो व्यसन, ऐषो-आराम और काम वासना की तृप्ति करने के लिए अविचार और अत्याचार का प्रमाण भी बढ़ता है. मोहन जी भागवत ने, इसी संदर्भ में धनसंपन्न 'इंडिया' और संस्कृति संपन्न 'भारत' ऐसी तुलना की होगी, ऐसा मुझे लगता है.
वैचारिक घोटाला
इंदौर के भाषण की, उसे सही तरीके से समझे बिना, आधा-अधूरा पढ़कर, आलोचना की गई. संपूर्ण भाषण पढ़ने के बाद जिन्होंने जल्दबाजी में आलोचना की, उनमें से कुछ ने बाद में क्षमायाचना भी की. श्री मोहन जी ने कहा कि, पाश्च्यात्त्यो मे विवाह एक अनुबंध माना जाता है. क्या यह गलत है? लेकिन माध्यमों ने 'पाश्च्यात्त्यो मे' इस अर्थ का जो शब्द था, वह छोड़ दिया और उनके विरुद्ध आलोचना की झड़ी लगा दी. अधूरा ही वचन विचार में ले तो कैसी गडबड हो सकती है, इसका एक काल्पनिक नमूना यहॉं देता हूँ. 'मा. गो. वैद्य महामूर्ख आदमी है, ऐसा जो कहते है वे सही नहीं.' इस वाक्य में से 'ऐसा जो कहते है वे सही नहीं' इतना अंश छोड़ दे, तो 'मा. गो. वैद्य महामूर्ख आदमी है' क्या इतना ही ध्यान में नहीं लिया जाएगा? ऐसा ही श्री मोहन जी के भाषण के बारे में हुआ है. हमारे यहॉं विवाह संस्कार माना गया है. 'संस्कार' मतलब अच्छा बनने की, अच्छा करने की व्यवस्था. विवाह यह व्रत है. अनुबंध कहे तो, वह तोड़ा जा सकता है. अनुबंध में शर्ते होती है. उनमें की कोई शर्त तोड़ी या तोड़ने का आरोप किया, तो अनुबंध तोड़ा जा सकता है. 'व्रत' तोड़ा नहीं जा सकता. एकादशी के उपवास का व्रत होगा, और घर में आलूबोंडे पकते होगे, तो उसे खाने का मोह हो सकता है, लेकिन व्रत याद होगा, तो उसे खाएंगे नहीं. व्रत के लिए संयम आवश्यक होता है. विवाह में उपभोग अभिप्रेत है. लेकिन उसे संयम की साथ चाहिए. यह संयम ही कामवासना की तृप्ति को, धर्म के अविरोधी बनाएगा.
स्त्री का सम्मान
समाज में स्त्री-पुरुष का मिलन रहता ही है. कुछ थोडे ही लोग होते है, जो कटाक्ष से विवाह संस्था से दूर रहते है. उनके सामने दूसरा कोई भव्यदिव्य लक्ष्य होता है. शुक, ज्ञानेश्वर-रामदास जैसे अनेक महान् महात्मा हो गए है, जिन्होंने विवाह नहीं किया. संघ के प्रचारक भी, एखाद अपवाद छोड़ दे तो, अविवाहित ही होते है. लेकिन उनकी संख्या कम होती है. संघ के लाखों स्वयंसेवकों में और कार्यकर्ताओं में उनकी संख्या दो-ढाई हजार से अधिक नहीं होगी. अनेक महर्षि, मठाधिपति भी विवाहित होते है. अगस्त-लोपामुद्रा, वसिष्ठ-अरुंधति ऐसी पुराणकालीन जोड़ियॉं है. कुछ देव भी सपत्नीक है. शंकर-पार्वती, विष्णु-लक्ष्मी दम्पत्ति है. हमारे यहॉं दोनों नामों का समास बनाकर व्यक्तियों के नाम रखे जाते है. लेकिन हमारी संस्कृति और व्याकरण का नियम है कि, प्रथम स्त्री का नाम और बाद में पुरुष का. इसलिए उमाशंकर, लक्ष्मीनारायण, सीताराम, राधाकृष्ण - जैसे नाम है. मनुस्मृति के लेखक की प्रतिगामी कहकर खूब आलोचना की जाती है. लेकिन उसने भी 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' ऐसा लिख रखा है. जहॉं महिलाओं का आदर होता है, वहॉं देवता आनंद से रहते है, ऐसा इस वाक्य का अर्थ है. मनुस्मृति के 'न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति' इस वचन को लेकर उसकी निंदा की जाती है. लेकिन यह निंदा करने वाले उस पंक्ति कि पहली पंक्ति ध्यान में ही नहीं लेते. संपूर्ण श्लोक का अर्थ है 'बाल्य काल में पिता ने, युवा अवस्था में पति ने, वृद्धावस्था में लड़कों ने स्त्री की रक्षा करनी चाहिए. उसे लावारिस न छोड़े.'
संपृक्त जोडी
पति और पत्नी संसाररथ के दो चक्के है, यह अनेक स्थानों पर बताया गया है. रथ की गति सही और सुरक्षित रहने के लिए दोनों चक्कों की ऊँचाई और शक्ति समान होनी चाहिए. महाकवि कालिदास ने, रघुवंश के प्रारंभ में शिव-पार्वती को वंदन करते हुए उनका, 'शब्द और अर्थ के अनुसार परस्पर में संपृक्त' (एक जान ) ऐसा वर्णन किया है. (वागर्थाविव संपृक्तौ). शब्दों के बिना अर्थ हो नहीं सकता; और अर्थ के बिना शब्द केवल आवाज है. पति-पत्नी का ऐसा निरंतर परस्परावलंबी साहचार्य हिंदू संस्कृति को अभिप्रेत है. इसलिए विवाह को धार्मिक संस्कार माना गया है. मोहन जी ने, ऐसा परस्पर से जोड लेना, व्यक्ति ने परिवार से, परिवार ने समाज से, समाज ने चराचर सृष्टि से मतलब पर्यावरण से जोड लेना, यह हमारी संस्कृति की विशेषताएँ बताई है. इसमें क्या संकुचितता और प्रतिगामिता है?
सांख्य तत्त्वज्ञान ने भी प्रकृति और पुरुष को आदिम तत्त्व बताया है. 'प्रकृति'से ही सब निर्मिति होती है. लेकिन इसके लिए 'पुरुष की' उपस्थिति आवश्यक होती है. श्रीमद्भगवद्गीता भी कहती है 'मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्'. पुरुष और प्रकृति दोनों 'अनादि' है. मतलब वे दोनों 'अनंत भी' है. हिंदू संस्कृति का स्त्री-पुरुष संबंध में, ऐसा मौलिक, अनादि, अनंत, मतलब सनातन दृष्टिकोण है.
शाश्वत और युगानुसारी
यह शाश्वत तत्त्व है. उसे कायम रखकर यहॉं परिवर्तन के लिए अवसर है. उदाहरण ही देना हो तो, हमारे कपड़ों का दिया जा सकता है. मनुष्य ने, उनमें स्त्रियों का भी समावेश है, वस्त्र परिधान करना, यह शाश्वत तत्त्व है. पशु वस्त्र परिधान नहीं करते. वस्त्र का उद्देश्य, जो ढकना है वह ढका जाना चाहिए यह है. यह शाश्वत तत्त्व है. ढकने वाले वस्त्र का आकार-प्रकार कालानुसार बदलेगा. नौ गज की जगह पॉंच गज की साडी आएगी, फिर सलवार-कमीज आएगी, उसके बाद जीन्स और शर्ट भी आएगा. लेकिन शाश्वत उद्दिष्ट का भान नित्य बना रहना चाहिए. हिंदुओं ने इस शाश्वत और युगानुसारी तत्त्व का अर्थ समझा और शाश्वत कायम रखकर युगानुकूल परिवर्तन किया, इसलिए यह समाज अभी भी जिवित है. वस्त्रों से याद आया कि वह सभ्य होने चाहिए. 'सभ्य' मतलब सभा में बैठने लायक; और सभा एक-दो की नहीं होती. वहॉं सामूहिक उपस्थिति होती है. हमारा पोशाख उस उपस्थिति को जचने वाला होना चाहिए. आधुनिकता के अति शौकीन इस दृष्टि से अपने पोशाख का विचार करे. वह सभ्यता और संस्कृति को अभिव्यक्त करने वाला हो. शरीर के छिपाने के अंग प्रदर्शित करने के लिए उसका उपयोग न हो. यही हमारी संस्कृति का संक्षेप में कथन है. आधुनिकता ने संस्कृति से बैर रखने का कारण नही.
- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी )
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Tuesday, January 15, 2013
Fwd: Hindi Bhashya from M G Vaidya
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