Wednesday, January 23, 2013

उठो जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक मत रुको



स्वामी विवेकानंद और उनके कथन 


अगले पचास वर्ष तक मन से सभी देवी-देवताओं को हटा दो, अपने हृदय के सिंहासन पर भारत माता को आराध्य देवता के रूप में प्रतिष्ठित करो। अब तो अपने स्वदेश बंधु ही अपने इष्ट देव हैं।''
मनुष्य बनो | अपनी संकीर्णता से बहार आओ और अपना दृष्टिकोण व्यापक बनाओ | देखो , दूसरे देश किस तरह आगे बढ़ रहे है ! क्या तुम मनुष्य से प्रेम करते हो ? क्या तुम अपने देश को प्यार करते हो ? तो आओ , हम उच्चतर तथा श्रेष्ठतर वस्तुओं के प्राणपण से यत्न करें |पीछे मात देखो ; यदि तुम अपने प्रियतमों तथा निकटतम सम्बन्धियो को भी रोते देखो , तो भी नहीं | पीछे मात देखो , आगे बढ़ो |

बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे - मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो - यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं - इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।
लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो।
धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु - प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है। यदि कभी कभी तुमको संसार का थोडा-बहुत धक्का भी खाना पडे, तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो जायगी।
तुम तब तक हिन्दू कहलाने के अधिकारी नही हो जबतक हिन्दू शब्द सुनते ही तुम्हारे अंदर बिजली न दौड़ने लगे 

अमेरिकी बहनों और भाइयों,

आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सब से प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।

मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:

रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
- ' जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।'
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैं, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा हैं:

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
- ' जो कोई मेरी ओर आता हैं - चाहे किसी प्रकार से हो - मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।'
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया हैं, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।
आओ हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एंव लोभ -- इस त्रिविध बन्धन से हम मुक्त हो जायें और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा।
पूर्णतः निःस्वार्थ रहो, स्थिर रहो, और काम करो। एक बात और है। सबके सेवक बनो और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जायेगी। आगे बढो तुमने बहुत अच्छा काम किया है। हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे बच्चे, आत्मविशवास रखो, सच्चे और सहनशील बनो
यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा।
हिंदू जन्म लेने पर मुझे गर्व है मेरे कारण नहीं, परन्तु मेरे देश, संस्कृति और पूर्वजों के कारण |जब में भूतकाल को देखता हूँ तो अनुभव करता हूँ की, मैं चट्टान की भांति मजबूत नींव पर खड़ा हूँ |
हम लोग हिन्दू हैं। मैं 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग किसी बुरे अर्थ में नहीं कर रहा हूँ और न मैं उन लोगों से सहमत हूँ जो समझते हैं कि इस शब्द के कोई बुरे अर्थ हैं। प्राचीनकाल में इस शब्द का अर्थ केवल इतना था- ''सिन्धु तट के इस ओर बसने वाले लोग।" आज भले ही हमसे घृणा रखनेवाले अनेक लोग इस शब्द पर कुत्सित अर्थ आरोपित करना चाहते हों, पर केवल नाम में क्या धरा है? यह तो हम पर निर्भर करता है कि 'हिन्दू' नाम ऐसी प्रत्येक वस्तु का द्योतक हो जो महिमामय है, आध्यात्मिक है अथवा वह केवल कलंकित, पददलित, निकम्मी और धर्मभ्रष्ट जाति का प्रतीक है। यदि आज 'हिन्दू' शब्द का कोई बुरा अर्थ लगाया जाता है, तो उसकी परवाह मत करो। आओ! हम सब अपने आचरण से संसार को यह दिखा दें कि संसार की कोई भी भाषा इससे महान् शब्द का आविष्कार नहीं कर पायी हैं।
मेरे जीवन का यह सिद्धान्त रहा है कि मुझे अपने पूर्वजों को अपनाने में कभी लज्जा नहीं आई। मैं सबसे गर्वीले मनुष्यों में से एक हूँ। किन्तू, मैं तुम्हें स्पष्ट रूप से बता दूँ यह गर्व मुझे अपने कारण नहीं अपितु अपने पूर्वजों के कारण है। अतीत का मैंने जितना ही अध्ययन किया है, जितनी ही मैंने भूतकाल पर दृष्टि डाली है, यह गर्व मुझमें उतना ही बढ़ता गया है। उसने मुझे साहसपूर्ण निष्ठा और शक्ति प्रदान की है। उसने मुझे धरती की धूल से उठाकर ऊपर खड़ा कर दिया और अपने महान् पूर्वजों के द्वारा निर्धारित उस महायोजना को पूर्ण करने में जुटा दिया। उन प्राचीन आर्यों की सन्तानों! भगवत्कृपा से तुम भी उस गर्व से परिपूर्ण हो जाओ। तुम्हारे रक्त में अपने पूर्वजों के लिए उसी श्रद्धा का संचार हो जाय! यह तुम्हारे रग-रग में व्याप्त हो जाये और तुम संसार के उद्धार के लिए सचेष्ट हो जाओ।
यदि इस पृथ्वीतल पर कोई ऐसा देश है, जो मंगलमयी पुण्यभूमि कहलाने का अधिकारी है; ऐसा देश, जहां संसार के समस्त जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना ही है; ऐसा देश जहां ईश्वरोन्मुख प्रत्येक आत्मा का अपना अन्तिम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए पहुंचना अनिवार्य है; ऐसा देश जहां मानवता ने ऋजुता, उदारता, शुचिता एवं शान्ति का चरम शिखर स्पर्श किया हो तथा इस सबसे आगे बढ़कर जो देश अन्तर्दृष्टि एवं आध्यात्मिकता का घर हो, तो वह देश भारत ही है। 
जब ग्रीस का अस्तित्व नहीं था, रोम भविष्य के अन्धकार के गर्भ में छिपा हुआ था, जब आधुनिक यूरोपवासियों के पुरखे जंगलों में रहते थे और अपने शरीरों को नीले रंग से रंगा करते थे, उस समय भी भारत में कर्मचेतना का साम्राज्य था। उससे भी पूर्व, जिसका इतिहास के पास कोई लेखा नहीं, जिस सुदुर अतीत के गहन अन्धकार में झांकने का साहस परम्परागत किंवदन्ती भी नहीं कर पाती, उस सुदूर अतीत के अब तक, भारतवर्ष से न जाने कितनी विचार तरंगें निकली हैं, किन्तु उनका प्रत्येक शब्द अपने आगे शान्ति और पीछे आशीर्वाद लेकर गया है। संसार की सभी जातियों में केवल हम ही हैं जिन्होंने कभी दूसरों पर सैनिक-विजय प्राप्ति का पथ नहीं अपनाया और इसी कारण हम आशीर्वाद के पात्र है।
लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो।
जब तक तुम लोगों को भगवान तथा गुरु में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। किन्तु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है।
जब तक जीना, तब तक सीखना' - अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।
हे सखे, तुम क्योँ रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं। हे भगवन, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड़ की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं। हे विद्वान! डरो मत; तुम्हारा नाश नहीं हैं, संसार-सागर से पार उतरने का उपाय हैं। जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मै तुम्हें दिखाता हूँ!
जो पवित्र तथा साहसी है, वही जगत में सब कुछ कर सकता है। माया-मोह से प्रभु सदा तुम्हारी रक्षा करें। मैं तुम्हारे साथ काम करने के लिए सदैव प्रस्तुत हूँ एवं हम लोग यदि स्वयं अपने मित्र रहें तो प्रभु भी हमारे लिए सैकडों मित्र भेजेंगे, आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः।
मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्न्त बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना। इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता।
'मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ। न तो संत या दार्शनिक ही हूँ। मैं तो ग़रीब हूँ और ग़रीबों का अनन्य भक्त हूँ। मैं तो सच्चा महात्मा उसे ही कहूँगा, जिसका हृदय ग़रीबों के लिये तड़पता हो।'


माँ को समर्पित !!! :

स्वामी विवेकानंद जी से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया," माँ की महिमा संसार में
किस कारण से गायी जाती है? स्वामी जी मुस्कराए, उस व्यक्ति से बोले, पांच सेर
वजन का एक पत्थर ले आओ | जब व्यक्ति पत्थर ले आया तो स्वामी जी ने उससे कहा, "
अब इस पत्थर को किसी कपडे में लपेटकर अपने पेट पर बाँध लो और चौबीस घंटे बाद
मेरे पास आओ तो मई तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा |"
स्वामी जी के आदेशानुसार उस व्यक्ति ने पत्थर को अपने पेट पर बाँध लिया और चला
गया | पत्थर बंधे हुए दिनभर वो अपना कम करता रहा, किन्तु हर छण उसे परेशानी और
थकान महसूस हुई | शाम होते-होते पत्थर का बोझ संभाले हुए चलना फिरना उसके लिए
असह्य हो उठा | थका मांदा वह स्वामी जी के पास पंहुचा और बोला , " मै इस पत्थर
को अब और अधिक देर तक बांधे नहीं रख सकूँगा | एक प्रश्न का उत्तर पाने क लिए
मै इतनी कड़ी सजा नहीं भुगत सकता |"
स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले, " पेट पर इस पत्थर का बोझ तुमसे कुछ घंटे भी
नहीं उठाया गया और माँ अपने गर्भ में पलने वाले शिशु को पूरे नौ माह तक ढ़ोती
है और ग्रहस्थी का सारा काम करती है | संसार में माँ के सिवा कोई इतना
धैर्यवान और सहनशील नहीं है इसलिए माँ से बढ़ कर इस संसार में कोई और नहीं |
किसी कवी ने सच ही कहा है : -
जन्म दिया है सबको माँ ने पाल-पोष कर बड़ा किया |कितने कष्ट सहन कर उसने, सबको
पग पर खड़ा किया |माँ ही सबके मन मंदिर में, ममता सदा बहाती है |बच्चों को वह
खिला-पिलाकर, खुद भूखी सो जाती है |पलकों से ओझल होने पर, पल भर में घबराती है
|जैसे गाय बिना बछड़े के, रह-रह कर रंभाती है |छोटी सी मुस्कान हमारी, उसको
जीवन देती है |अपने सारे सुख-दुःख हम पर न्योछावर कर देती है |

Vivekananda Rock Memorial, Kanyakumari-


अपने भाइयों का नेतृत्व करने का नहीं , वरन् उनकी सेवा करने का प्रयत्न करो नेता बनने की इस कू्र उन्मतता ने बड़े -बड़े जहाजों को इस जीवनरूपी समुद्र में डुबो दिया है |
अगर धन दूसरों की भलाई करने में मदद करे, तो इसका कुछ मूल्य है, अन्यथा, ये सिर्फ बुराई का एक ढेर है, और इससे जितना जल्दी छुटकारा मिल जाये उतना बेहतर है.
"मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव-देह तथा इस जन्म में ही हम इस सापेक्षिक जगत् से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं–निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।"

स्त्रियों की स्थिति में सुधार किये बिना संसार के कल्याण की कोई सम्भावना नही है | एक पक्षी का केवल एक पंख के सहारे उड़ सकना असम्भव है |

'' पराधीनता दैन्य है | स्वाधीनता ही सुख है | ''
जिस जाति की जनता में विद्या - बुद्धि का जितना ही अधिक प्रचार है , वह जाति उतनी ही उन्नत है |
चरित्र ही कठिनाइयों की संगीन दीवारें तोड़कर अपना रास्ता बना सकता है |
भारत की भूमि से मुझे प्यार है ,उसकी धूलि मेरे लिए पवित्र है , उसकी हवा मेरे लिए पावन है | वह एक पवित्र भूमि है , यात्रा का स्थान है , पवित्र तीर्थक्षेत्र है |

मैं यहां से दूर एक गांव में रहता था। वहां हरिदास नाम का एक ब्राह्मण भी रहता था। हरिदास अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था। वे इतने अधिक निर्धन थे कि अक्सर उन्हें भोजन भी नहीं मिलता था। हरिदास के पास कुछ धार्मिक ग्रंथ थे और उनमें से वह अतीत में हुए महान व्यक्तियों की कहानियां पढ़ा करता था। उन कथाओं को वह ग्रामवासियों को सुनाया करता था जिससे कि वे भी परोपकार और दया का पाठ सीख सकें। ग्रामवासी उसे भेंट में आटा, चावल, साग, फल आदि दिया करते थे। वह उन्हें घर जाकर सावधानी से चार बराबर भागों में बांटता, जिससे परिवार के चारों सदस्यों को समान हिस्सा मिल सके। हरिदास और उसके परिवार का जीवन इसी प्रकार चल रहा था।
कुछ समय बाद गांव में ऐसी स्थिति आई कि ग्रामवासियों के पास अपने लिये भी पर्याप्त भोजन नहीं रहता था। वर्षा न होने के कारण खेतों की सारी फसल सूख कर नष्ट हो गयी थी। तीन वर्ष तक वहां वर्षा नहीं हुई जिससे वहां के सारे कुएं भी सूख गये। दिन-प्रतिदिन दशा बिगड़ती गयी और वहां के लोग भूख-प्यास से व्याकुल रहने लगे। हरिदास और उसके परिवार के सदस्य भी अत्यधिक क्षुधा-पीड़ित रहने लगे। वे दुर्बल होने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा कि वे शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे।
एक बार कुछ यात्री उस गांव से गुजर रहे थे और उन्होंने जब गांव की दुर्दशा देखी तो गांव वालों को आटे का एक बड़ा बोरा दिया। गांव वाले आनन्द से भर उठे। परन्तु वे अपने गुरु और मित्र हरिदास को भूले नहीं। उन्होंने उसे भी थोड़ा आटा भिजवाया।
हरिदास प्रसन्नता से अपनी पत्नी को पुकार उठा, 'देखो! देखो! कुछ तो आया खाने के लिए।'
उसकी पत्नी ने आटे को देख कर कहा, 'यह तो चार व्यक्तियों के लिए पर्याप्त नहीं है। मैं आप तीनों के लिए रोटी बना दूंगी।'
'नहीं! नहीं!' हरिदास ने कहा- 'हम सभी तो भूखे हैं। तुम चारों के लिए छोटी-छोटी चार रोटियां बना लो।'
हरिदास की पत्नी और उसकी पुत्रवधू ने चार समान रोटियां बनाईं, तथा पुकार कर हरिदास को कहा-
'आओ जल्दी खा लें क्योंकि हम सब बहुत भूखे हैं।' उसने सबको एक-एक रोटी दी और एक अपने लिए रख ली। ठीक उसी समय बाहर से किसी ने दरवाजा खटखटाया।
'भला इस समय कौन आया है?' ऐसा सोचकर हरिदास ने अपनी रोटी रखी और उठकर दरवाजा खोलने गया। उसने वहां फटे चिथड़े में लिपटे एक भिखारी को खड़ा देखा।
'मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?' हरिदास ने पूछा।
आगन्तुक व्यक्ति ने कहा, 'मैं वाराणसी जा रहा हूं। मैंने रास्ते में बच्चों से एक भले आदमी के घर का ठिकाना पूछा। वे ही मुझे तुम्हारे घर ले आये। मैं भूखा और थका हुआ हूं। महाशय, क्या मैं यहां कुछ देर के लिए विश्राम कर सकता हूं? सचमुच मैं बहुत भूखा हूं।'
हरिदास ने ध्यान से उस व्यक्ति का चेहरा देखा। हां, वह बहुत थका हुआ और दुर्बल दिखाई पड़ रहा था। उसे भोजन की आवश्यकता थी।
हरिदास ने उस अतिथि का स्वागत किया। अतिथि की सेवा करना भगवान की ही सेवा करना है। वह उसे अपने कमरे में ले गया और बैठने के लिए स्थान दिया।
हरिदास कहने लगा, 'हमारे पास अधिक कुछ खाने को नहीं है, पर आज ही हमें कुछ आटा मिला जिससे हमने चार रोटियां बनाई हैं, एक मैं तुम्हारे लिये लाया हूं।' ऐसा कहकर हरिदास ने उसे अपनी रोटी दे दी।
अन्य तीन व्यक्ति उसे देख रहे थे कि किस प्रकार आतुरता से उसने रोटी खा ली। खाकर फिर उसने कहा, 'अहा! कितनी अच्छी थी रोटी- पर भूखे व्यक्ति की भूख तो थोड़ा-सा खा लेने से और भी अधिक बढ़ जाती है। बहुत भूख लग रही है- मेरा पेट जला जा रहा है, कहीं मेरे प्राण ही न निकल जायें।' हरिदास की पत्नी ने देखा और अपनी रोटी उसे दे दी।
हरिदास के प्रतिकार करने पर उसने कोमलता से कहा, 'हम गृहस्थ हैं, और हमारे घर एक भूखा अतिथि आया है। हमारा कर्तव्य है कि हम उसे खाना दें। आपने अपनी रोटी दे दी और अब आपकी पत्नी होने के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं अपनी रोटी भी उसे दे दूं।'
वह रोटी भी आगन्तुक शीघ्र ही खा गया। हरिदास की पत्नी ने पूछा, 'अब कुछ ठीक लगा?' 'अभी भी भूख बहुत लगी है', आगन्तुक ने कहा।
हरिदास के पुत्र ने कहा- 'पिता के कार्य को पूरा करना पुत्र का धर्म है, अत: मेरी यह रोटी तुम ले लो।' ऐसा कह कर हरिदास के बेटे ने अपनी रोटी उसे दे दी।
उसे भी खाकर जब वह तृप्त नहीं हुआ तब पुत्रवधू ने भी अपनी रोटी उसे दे दी और तब कहीं जाकर उसे शान्ति मिली।
उसने कहा, 'अब मैं ठीक हूं। अब मुझे अपनी यात्रा पर आगे बढ़ना चाहिए।' खड़े होकर उसने उन लोगों को आशीर्वाद दिया और पुन: यात्रा पर चल पड़ा।
उसी रात भूख से हरिदास, उसकी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू की मृत्यु हो गयी। ('विवेकानन्द की मनोरम कहानियां' से साभार)
तुम जो सोचोगे वही बन जाओगे ; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे , तो तुम दुर्बल बन जाओगे ; वीर्यवान सोचोगे तो वीर्यवान बन जाओगे |
यदि कोई मनुष्य स्वार्थी है ,तो चाहे उसने संसार के सब मंदिरों के दर्शन क्यों न किये हो , सारे तीर्थ क्यों न गया हो और रंग भभूत रमाकर अपनी शक्ल चीते जैसी क्यों ना बना ली हो , शिव से वह बहुत दूर है |
" हिंदू समाज में से एक मुस्लिम या इसाई बने , इसका मतलब यह नहीं कि एक हिंदू कम हुआ , बल्कि हिंदू समाज का एक दुश्मन ओर बढ़ा | "
धर्म ही भारत की जीवन शक्ति है | अगर हिंदू जाति अपने पूर्वजो की विरासत 
न भूले तो दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें नहीं मिटा सकती |
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