Thursday, February 2, 2017

Fwd: विवेकानंद पर विवेकहीन बातें


 

विवेकानंद पर विवेकहीन बातें
पिछले कुछ अरसे में विवेकानंद से खफा तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक जमात उभरी है।  इसके ज्यादातर महारथी वामपंथी खेमे से आते हैं। विवेकानंद से उन्हें सबसे बड़ी परेशानी ये है कि विवेकानंद हिंदुत्व के ऐसे प्रतीक हैं जो आज युवाओं के बीच पहले से भी अधिक तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। ऐसे में हिंदुत्व को खुद के लिए चुनौती मानने वाले अब विवेकानंद पर भ्रम पैदा करने के अभियान में जुट गए हैं।
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प्रशांत बाजपेई, पाञ्चजन्य 

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वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर " भारत के समाज के लिए स्वामी विवेकानंद का यह प्रसिद्ध वाक्य है। गत 12 जनवरी  को उनकी जयंती पर एक प्रसिद्ध हिंदी अखबार ने अपने संपादकीय पृष्ठ पर स्वामीजी के इस वचन को तोड़ते-मरोड़ते हुए 'इस्लामी शरीर और वैज्ञानिक बुद्धिशीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया। देखते ही माथा ठनका कि ये कैसी प्रमाणिकता है जो एक इतिहास पुरुष के बकायदा दस्तावेजीकृत बयान को अपनी वैचारिक रूढ़ि के अनुसार विकृत करती है , और ये कैसी बुद्धिजीविता है जिसे इस्लामी शरीर तो स्वीकार है लेकिन वेदांती बुद्धि नहीं ?

सबसे पहले यह जान लेना ठीक होगा कि विवेकानंद का वास्तविक वचन और उनका अभिप्राय क्या था। 10 जून 1898 को अल्मोड़ा से स्वामी विवेकानंद ने मुहम्मद सरफ़राज़ हुसैन को लिखा - "हमारी मातृभूमि के लिए एक ही आशा है वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर। " ( देखें- पत्रावली, विवेकानंद साहित्य संचयन , रामकृष्ण मठ , नागपुर ) ऐसा कहने से स्वामीजी का क्या आशय था यह भी उन्होंने इस पत्र के मध्य भाग में स्पष्ट किया है जब वे कहते हैं कि इस्लाम के अनुयायी  समानता के भाव का अंश रूप में पालन करते हैं परंतु उसके गहरे अर्थ से अनभिज्ञ हैं, उसे ( मानव मात्र की समानता के तत्व को ) हिंदू साधारणतः स्पष्ट रूप से समझते हैं ('परंतु पूरी तरह आचरण नहीं कर रहे हैं ', संकेत जातिगत रूढ़ियों और तब प्रचलित कुरीतियों की ओर है।) इस्लाम के अनुयायियों द्वारा "समानता के सिद्धांत का अंश रूप में पालन" से अभिप्राय स्पष्ट करते हुए 'विश्वधर्म का आदर्श' नामक प्रसिद्ध भाषण में स्वामीजी कहते हैं - "मुसलमान विश्वबंधुत्व का शोर मचाते हैं।  किन्तु वस्तुतः वे भ्रातृभाव से कितनी दूर हैं।  जो मुसलमान नहीं है, वे भ्रातृ-संघ में शामिल नहीं किये जाएंगे।  उनके गले काटे जाने ही की अधिक सम्भावना है।  ईसाई भी विश्वबंधुत्व की बातें करते हैं; किन्तु (उनकी मान्यता के अनुसार )जो ईसाई नहीं है, वह (मृत्यु के बाद ) अवश्य ही ऐसे एक स्थान में जाएगा, जहाँ अनंतकाल तक वह (नर्क की ) आग से झुलसाया जाए।"

वेदांत दर्शन क्या है इसे 12 नवंबर 1897 को उन्होंने लाहौर में युवकों के सामने दिए गए अपने भाषण में समझाते  हुए कहा था कि " भारतीय  मन को बाहरी जगत से (अर्थात भौतिक अथवा सांसारिक पदार्थों से ) जो कुछ मिलना था , मिल चुका था, परंतु उससे इसे (भारत के मन को ) तृप्ति नहीं हुई। अनुसंधान के लिए वह और आगे बढ़ा। समस्या के समाधान के लिए उसने अपने में ही गोता लगाया और तब यथार्थ  उत्तर मिला। वेदों के इस भाग का नाम है उपनिषद् या वेदांत या आरण्यक या रहस्य।" आगे विवेकानंद समझाते हैं कि भारत के विभिन्न मत संप्रदायों में प्रचलित कर्म-काण्ड, अनुष्ठानऔर विभिन्न पूजा पद्धतियों आदि के सार को समझने के लिए वेदांत की आवश्यक्ता है। ऐसे में वेदांती बुद्धि को वैज्ञानिक बुद्धि बनाकर उसे इस्लामी शरीर से जोड़ने की 'सेकुलर' ज़रुरत को समझा जा सकता है। प्रामाणिकता और ईमानदारी का पूछना ही क्या, आखिर प्रमाणपत्र बाँटने वाले भी यही लोग हैं।

पिछले कुछ अरसे में विवेकानंद से खफा तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक जमात उभरी है।  इसके ज्यादातर महारथी वामपंथी खेमे से आते हैं। विवेकानंद से उन्हें सबसे बड़ी परेशानी ये है कि विवेकानंद हिंदुत्व के ऐसे प्रतीक हैं जो आज युवाओं के बीच पहले से भी अधिक तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। ऐसे में हिंदुत्व को खुद के लिए चुनौती मानने वाले अब विवेकानंद पर भ्रम पैदा करने के अभियान में जुट गए हैं। आधी-अधूरी समझ लेकर राजनैतिक दृष्टिकोण से टीका-टिप्पणियाँ  की जा रही हैं। आधे-अधूरे उद्धरणों को लेकर तमाशा खड़ा करने के प्रयास हो रहे हैं। कुछ समय पहले एक किताब आई 'कॉस्मिक लव एंड ह्यूमन इम्पैथी : स्वामी विवेकानंदाज रिसेंटमेन्ट ऑफ़ रिलीजन ' पुस्तक के लेखक की पहली शिकायत या आरोप है कि विवेकानंद ने हिंदुत्व पर सारा ज़ोर दिया है जबकि उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस के वचनों के संग्रह रामकृष्ण कथामृत में हिंदू शब्द नहीं आता।

आरोपकर्ता लेखक ने यदि थोड़े से सहज ज्ञान का उपयोग किया होता, या वैसी उनकी नीयत होती तो उन्हें ध्यान में आ सकता था कि रामकृष्ण परमहंस हिंदुओं के छोटे समूह के बीच ही बोल रहे थे, तीर्थयात्रा के अतिरिक्त वे कभी बाहर भी नहीं निकले, अतः अलग से हिंदू संबोधन के प्रयोग का औचित्य नहीं था। साथ ही परमहंस की बातों का केंद उनके शिष्यों की व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधना और इस मार्ग की कठिनाइयों आदि के बारे में रहा है। जबकि विवेकानंद वैश्विक श्रोताओं को संबोधित कर रहे थे। उनकी सार्वजनिक चर्चाओं का सारा ज़ोर सामाजिक है, अतः उन्होंने भारत के सारे विचार और भाव समूह को संयुक्त रूप से हिंदू कहकर संबोधित किया है। जब वो व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधना की बात करते हैं तब हिंदू या यूरोपीय जैसी भौगोलिक या सांस्कृतिक पहचानों की बात नहीं करते। इसका प्रमाण हैं उनकी राजयोग, प्रेमयोग और भक्तियोग जैसी रचनाएँ।

लेखक की दूसरी शिकायत है कि विवेकानंद ने हिंदुत्व को वैश्विक उपासना पद्धति (यूनिवर्सल फेथ ) के रूप में प्रस्तुत किया है। ये आरोप भी झूठा है। इसे विस्तार से समझने की ज़रुरत है। पहली बात ये है कि हिंदुत्व इस्लाम और ईसाइयत जैसा 'फेथ ( विश्वासियों का समूह) नहीं है। यहाँ न एक किताब है , एक पैगम्बर न ही एक पूजा पद्धति। यहाँ हज़ारों सालों से गुरु और शिष्य अपनी इच्छानुसार अलग-अलग  साधना पद्धतियों की खोज करते आये हैं। गीता में ही कृष्ण ने अनेक उपासना पद्धतियों की शिक्षा दी है जिसमें उन्होंने प्रेमयोग, भक्तियोग, राजयोग, कर्मयोग आदि को समझाया है। योग के अंदर भी अनेकों धाराएँ  विकसित हुई हैं। सभी ने महान गुरुओं को जन्म दिया है। इसी परंपरा को विवेकानंद ने हिंदुत्व कहा है, जैसा कि उनके शिकागो के भाषण से स्पष्ट है। भारत की वैदिक परंपरा और वेदांत उपनिषद् आदि भी व्यक्ति के स्वभाव और रूचि के अनुसार अपना मार्ग चुनने को कहते हैं।
सभी लोग एक ही ढंग से चलें ऐसा आग्रह ही सारे अनर्थों की जड़ है।

इस बारे में विवेकानंद विश्वधर्म का आदर्श नामक भाषण में कहते हैं - "बहुत्व में एकत्व का होना सृष्टि का विधान है। हम सब लोग मनुष्य होते हुए भी परस्पर प्रथक हैं। मनुष्य जाति के एक अंश के रूप में मैं और तुम एक  हैं, किन्तु व्यक्ति के रूप में मैं तुमसे पृथक  हूँ । पुरुष होने से तुम स्त्री से भिन्न हो, किन्तु मनुष्य होने के नाते स्त्री और पुरुष एक ही हैं।ईश्वर है वह विराट सत्ता-इस विचित्रता भरे जगत  का चरम एकत्व।  उस ईश्वर में हम सभी एक हैं, किन्तु हमारे प्रत्येक बाहरी कार्य और चेष्टा में यह भेद सदा ही विद्यमान रहेगा। इसलिए विश्व धर्म का यदि यह अर्थ लगाया जाए कि एक प्रकार के विशेष मत (पंथ) में संसार के सभी लोग विश्वास करें, तो यह सर्वथा असंभव है। यह कभी नहीं हो सकता। ऐसा समय कभी नहीं आएगा, जब सब लोगों का मुँह एक रंग का हो जाए और यदि हम आशा करें कि समस्त संसार एक ही पौराणिक तत्व में विश्वास करेगा, तो यह भी असंभव है, यह कभी नहीं हो सकता।  फिर, समस्त संसार में कभी भी एक प्रकार की अनुष्ठान पद्धति प्रचिलत हो नहीं सकती । ऐसा किसी समय हो नहीं सकताहो भी जाए, तो सृष्टि लुप्त हो जाएगी। कारण, विविधता ही जीवन का मूल है।"

विश्व में सर्वसमावेशक सोच और गहरी समझ विकसित करने की आवश्यक्ता बतलाते हुए विवेकानंद कहते हैं कि यह " सब प्रकार की मानसिक अवस्था वाले लोगों के लिए उपयोगी हो; इसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समानभाव  से रहेंगे।  यदि कॉलेज से वैज्ञानिक और भौतिकशास्त्री  आएँ तो वे तर्क-वितर्क पसंद करेंगे।  उनको  युक्ति-तर्क करने दो, अंत में वे एक ऐसी स्थिति पर पहुंचेंगे, जहाँ से युक्ति-तर्क की धारा छोड़े बिना वे और आगे बढ़ ही नहीं सकते, वो ये (स्वयं ही) समझ लेंगे।....   इसी तरह यदि कोई योगप्रिय व्यक्ति आए, तो हम उनकी आदर के साथ अभ्यर्थना करके वैज्ञानिक भाव से मन का विश्लेषण कर देने और उनकी आँखों के सामने उसका प्रयोग दिखाने को प्रस्तुत रहेंगे।  यदि भक्त लोग आएँ, तो हम उनके साथ एकत्र बैठ कर भगवान के नाम पर हँसेंगे और रोएंगे, प्रेम का प्याला पीकर उन्मत्त हो जाएंगे। यदि एक पुरुषार्थी कर्मी आए, तो उसके साथ पूरी शक्ति से काम करेंगे।  भक्ति, योग, ज्ञान और कर्म का इस प्रकार का समन्वय विश्वधर्म का अत्यंत निकटतम आदर्श होगा।"

स्वामी विवेकानंद द्वारा व्यक्त मूलभूत एकता का यह विचार ही उपनिषद् या वेदांत या आरण्यक या रहस्य  के रूप में हज़ारों साल पहले अभिव्यक्त हुआ है। इस विचार को पूरी ताकत से व्यवहार में उतारने को ही उन्होंने "वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर" कहकर व्यक्त किया है।
एक अंग्रेजी अखबार ने मानव की मूलभूत एकता का चिंतन करने वाले विवेकानंद को जातिवाद का प्रतीक बतलाया। 'कॉस्मिक लव एंड ह्यूमन इम्पैथी ....' के लेखक ने विवेकानंद के विचारों को तोड़मरोड़कर उन्हें जातिवाद का समर्थक बतलाया है जो 'ब्राह्मण जाति के सामाजिक प्रभुत्व की वकालत करते हैं। इससे बड़ा झूठ कुछ हो नहीं सकता। विवेकानंद ने साफ़ कहा है कि जन्म के आधार पर जाति का अभिमान करना व्यर्थ है। और वैदिककाल में वर्णो के विभाजन का आधार व्यक्तिगत स्वभाव था न कि किसी घर में जन्म लेना। उनके अनुसार ब्राह्मण अर्थात सत्य के अनुसंधान के लिए सबकुछ दांव पर लगा देने वाला। और इसीलिए उन्होंने 'ब्राह्मणत्व को मानवता का सर्वोच्च आदर्श बतलाया। यह ब्राह्मणत्व गुरु रैदास और कबीर में, गुरु गोविंद और रामकृष्ण परमहंस में झलकता है। 3 जनवरी 1895 को, शिकागो से उन्होंने जस्टिस सुब्रमण्यम अय्यर को लिखा - "अमेरिका में यथार्थ जाति के विकास के लिए सबसे अधिक सुविधा है। इसलिए अमेरिका वाले बड़े (सफल ) हैं।" अब अमेरिका में कौनसी जाति प्रचलित है ? वहाँ तो एक ही व्यवस्था है - व्यक्ति अपनी रूचि और योग्यता के अनुसार काम करे।
अपनी जाति का अभिमान करने और दूसरों को कम समझने वालों पर उन्होंने तीखी चोट करते हुए एक लेख लिखा है - "भारत की उच्च जातियों के प्रति।" इसमें वो लिखते हैं -
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कितना भी 'डमडम' कह कर गाल बजाओ, तुम ऊँची जातवाले क्या जीवित हो ? तुम लोग हो दस हजार वर्ष पूर्व के ममी ! जिनकी 'सचल श्मशान' कहकर तुम्हारे पूर्व-पुरुषों ने घृणा की है। भारत में जो कुछ वर्तमान जीवन है, वह उन्हीं (महान पूर्वजों के कारण) में है और सचल श्मशान हो तुम लोग। तुम्हारे घर-द्वार म्यूज़ियम हैं, तुम्हारे आचार-व्यवहार, चाल-चलन देखने से जान पड़ता है, बड़ी दादी के मुँह से कहानियाँ सुन रहा हूँ। तुम्हारे साथ प्रत्यक्ष वार्तालाप करके भी घर लौटता हूँ, तो जान पड़ता है, चित्रशाला में तसवीरें  देख आया। इस माया के संसार की असली प्रहेलिका, असली मरू-मरीचिका तुम लोग हो भारत के उच्च वर्णवाले।"
भारत के वंचित वर्ग को समर्थ बनाने का आह्वान करते हुए वो आगे लिखते हैं -
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फिर एक नवीन भारत निकल पड़े।  निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, जाली, माली, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से।  निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से । निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। इन लोगों ने सहस्र-सहस्र वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है- उससे पायी है अपूर्व सहिष्णुता।  सनातन दुःख उठाया, जिससे पायी है अटल जीवनी-शक्ति।  ये लोग मुट्ठी भर सत्तू खाकर दुनिया उलट  सकेंगे।  आधी रोटी मिली, तो तीनों लोक में इतना तेज न अटेगा।  ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त हैं।  और पाया है सदाचार-बल, जो तीनों लोक में नहीं है। इतनी शांति, इतनी प्रीति, इतना प्यार, बेजबान रहकर दिन-रात इतना खटना और काम के वक्त सिंह का विक्रम।"
वो कहते हैं कि अपने झूठे अभिमान को त्यागकर कान लगाकर सुनो तुम्हें भविष्य के भारत की आवाज़ सुनाई पड़ेगी - "अतीत के कंकाल-समूह ! - यही है तुम्हारे सामने तुम्हारा उत्तराधिकारी भावी भारत।  वे तुम्हारी रत्नपेटिकाएँ, तुम्हारी मणि की अंगूठियाँ - फेंक दो इनके बीच; जितना शीघ्र फेंक सको, फेंक दो; और तुम हवा में विलीन हो जाओ, अदृश्य हो जाओ, सिर्फ कान खड़े रखो। तुम ज्यों ही विलीन होगे, उसी वक्त सुनोगे, कोटि कंठों से निनादित त्रैलोक्यकम्पनकारिणी भावी भारत की उद्बोधन  ध्वनि 'वाहे गुरु की फतह!'

सत्य को जानने के लिए नीयत का भी बड़ा महत्व है। आश्चर्य क्या, कि विवेकानंद की आलोचना में पूरी किताब लिखने वाले लिक्खाड़ों को उनके ये वचन सुनाई नहीं पड़ते।

उन्हें चुभता है जब विवेकानंद कहते हैं - "वेदांत दर्शन का एक ही उद्देश्य है और वह है - एकत्व की खोज।  हिन्दू लोग किसी विशेष के पीछे नहीं दौड़ते, वे तो सदैव सर्वमान्य की, यही क्यों, सर्वव्यापी सार्वभौमिक की खोज करते हैं। 'वह क्या है, जिसके जान लेने से सब कुछ जाना जा सकता है ?'  यही उनका विषय है। जिस प्रकार मिट्टी के एक ढेले को जान लेने पर जगत की सारी मिट्टी को जान लिया जा सकता है, उसी प्रकार ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसे जान लेने पर जगत की सारी वस्तुएँ जानी जा सकती हैं। उनकी यही एक खोज है, यही एक जिज्ञासा है।"

अब हिंदू के अलावा दूसरा कौनसा शब्द है जिससे इस भारतीय विचार को बतलाया जाय। वेदों में हिंदू शब्द नहीं है , उपनिषद् गीता आदि में भी नहीं है। हज़ारों साल पहले इस तरह के निरूपण की आवश्यक्ता ही नहीं थी। जब सारी दुनिया के साथ तुलना शुरू हुई तब भारत की संस्कृति, यहाँ के  विचार, मूलभूत संस्कार को हिंदू कहा जाने लगा। भौगोलिक पहचान के रूप में भारत को हिंदुस्थान या हिंदुस्तान भी कहा जाने लगा । अब किसी की राजनीति पर चोट पड़ती हो तो पड़े। किसी को चुभता हो तो चुभे।  विवेकानंद डंके की चोट पर सत्य बोलते हैं। बेधड़क, बेलाग , बिना द्वेष के।

 

मद्रास के हिंदुओं द्वारा भेजे गए अभिनंदन पत्र का उत्तर देते हुए उन्होंने लिखा - "अब पांसे पलट गए हैं। जो हिंदू निराशा के आँसू बहाता हुआ अपने पुराने घर को आतताइयों द्वारा जलाई गई आग से घिरा हुआ देख रहा था, आज जबकि आधुनिक विचार के प्रकाश ने धुँए के अँधेरे को हटा दिया है, तब वही हिंदू देख रहा है कि उसका अपना घर पूरी मजबूती के साथ खड़ा है और शेष सब या तो मर मिटे या अपने -अपने घर हिंदू नमूने के अनुसार नए सिरे से बना रहे हैं।" विवेकानंद के ये वचन आज वर्तमान बनकर हमारे सामने हैं। दुनिया में योग का डंका बज रहा है। दुनियाभर में ध्यान की कक्षाएँ चल रही हैं। वैश्विक समाज का  प्रबुद्ध वर्ग मत-मतांतरों और संप्रदायों की सीमा लांघकर सत्य को स्वीकार कर रहा है।भारत की नयी पीढ़ी उत्साह के साथ आधुनिक और पुरातन का मेल बिठाने को प्रतिबद्ध दिख रही है। सत्य के लिए संघर्ष को तैयार है। यही है वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर।

 

अमेरिका निवासी बहनों तथा भाइयों

 

11 सितंबर 1893 को विश्व पंथ सभा, शिकागो, में अपने विश्वप्रसिद्ध भाषण में स्वामी विवेकानंद ने हिंदुत्व की उदार परंपरा और सार्वभौमिकता को रेखांकित किया। ये उद्बोधन इतना प्रभावी और अभिनव था कि कुछ ही मिनटों के अंदर सदियों का हिसाब हो गया।

संबोधन में ही उन्होंने आधे अमरीकी समाज की दुखती रग को स्पर्श कर लिया था। उस समय अमरीकी महिलाएँ अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहीं थीं। 1878 में अमरीकी संसद में स्त्रियों को मताधिकार देने का प्रस्ताव लाया गया , लेकिन सदन में गिर गया। अमरीका में  स्त्री अधिकारों के लिए संघर्ष की लहर अब दूसरे उग्र चरण की ओर बढ़ रही थी। ऐसे समय जब एक तेजस्वी हिंदू सन्यासी ने स्त्रियों को प्रथम सम्मान देते हुए " अमरीका निवासी बहनो तथा भाइयों" कहा, तो सभाकक्ष तालियों  गड़गड़ाहट से गूँज उठा। उन्होंने भाषण की शुरुवात स्वयं को हिन्दू परंपरा का  प्रतिनिधि बतलाते हुए इस प्रकार की -

"आपने जिस सौहार्द्र और स्नेह के साथ हमारा यहाँ स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के लिए खड़े होते हुए मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से भर गया है। संसार में सन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ, मैं आपको सभी पूजापद्धतियों की माता (हिंदू परंपरा ) की ओर से धन्यवाद देता हूँ और सभी सम्प्रदायों और मतों के करोड़ो हिन्दुओं की ओर से भी आपको धन्यवाद देता हूँ."

इसके बाद उन्होंने हज़ारों वर्ष से चली आ रही सहिष्णुता की हिन्दू परंपरा का परिचय देते हुए कहा- "मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन  वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने इस बात का उल्लेख किया और आपको यह बतलाया कि सहिष्णुता का विचार पूरे विश्व में पूरब के देशों से फैला है। मैं एक ऐसी परंपरा का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने दुनिया को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है।  हम लोग सभी पंथों  के प्रति ही केवल सहनशीलता में ही विश्वास नहीं करते बल्कि सारे पंथों  को सत्य मान कर स्वीकार करते हैं।"

भारत के इतिहास की दो प्रसिद्ध घटनाएँ, जो भारत के विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम से गायब रही हैं, का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा - "मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस धरती के सभी पंथों और देशों के पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है।  मुझे यह बताते हुए भी गर्व होता है कि हमने अपने ह्रदय में उन यहूदियों को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। मैं एक ऐसी परंपरा का अनुयायी होने में गर्व अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथ्रुष्ट (पारसी) जाति  के अवशिष्ट अंश को शरण दी (663 ईसवी में, जब अरब हमलावरों ने ईरान पर आक्रमण किया था ) और जिसका पालन वह अभी  भी कर रहा है।"

संसार की सभी पूजा पद्धतियों का सम्मान करने के हिंदू संस्कार को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा -

"भाईयो मैं आप लोगों को एक श्लोक की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसे मैं बचपन से स्मरण करता आ रहा हूँ और जिसे प्रतिदिन लाखों-करोड़ों मनुष्यों ( हिंदुओं ) द्वारा दोहराया जाता है.

संस्कृत श्लोक-:
"रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।"


अर्थात 'जैसे विभिन्न नदियाँ अलग-अलग स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं ठीक उसी प्रकार से अलग-अलग रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में तुझमें ( ब्रह्म या परमात्मा ) में ही आकर मिल जाते हैं।' यह सभा जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है, स्वतः ही गीता के इस अदभुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है.

"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।"

 

अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है वह चाहे किसी प्रकार से हो,मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग अलग-अलग रास्तों द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं। 

साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर मज़हबी कट्टरता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे इस धरती को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के खून से नहलाती रही हैं और कई सभ्यताओं का नाश करती हुई सभी देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं.

यदि ये वीभत्स राक्षसी न होती तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता।  पर अब उनका समय आ गया है और मैं अंतःकरण  से यह आशा  करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त मज़हबी कट्टरता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी उत्पीड़नों  का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का  मृत्युनिनाद सिद्ध हो।"

यही स्वामी विवेकानंद का हिंदुत्व है, जिसे लेकर कुछ छद्म बुद्धिजीवियों के पेट में मरोड़ उठती रहती है। हिंदुत्व की इसी परिभाषा को लेकर पिछली सदी में हिंदुत्व की लहर उठी है, जो दिन पर दिन ताकतवर होती जा रही है। इसी उदार विचार को 'सांप्रदायिकता' और 'सेकुलरिज़्म के लिए खतरा' बतलाने को  सेकुलरिज़्म के स्वयंभू ठेकेदारों में होड़ लगी रहती है। इसीलिए वामपंथियों के एक खेमे को अब विवेकानंद को धुँधला करने, उनकी बातों को तोड़मरोड़ कर विवाद खड़ा करने की ज़रुरत महसूस हो रही है।

 

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