इस्लामिक आतंकवाद : इतिहास, कारण और निवारण
सुरेश चिपलूणकर
जब रेतीले क्षेत्र में तूफ़ान आते हैं, उस समय शतुरमुर्ग अपना सिर रेत में धँसा लेता है और पृष्ठभाग को तूफ़ान की ओर कर लेता है. ऐसा करके शतुरमुर्ग सोचता है की शायद तूफ़ान टल जाएगा और वह बच जाएगा. इसी प्रकार जब बिल्ली दूध पी रही होती है, उस समय आँखें बंद कर लेती है, तात्कालिक रूप से उसे ऐसा महसूस होता है कि कोई उसे नहीं देख रहा. जबकि ऐसा होता नहीं है. तूफ़ान तो आता ही है और वह शतुरमुर्ग को उड़ा ले जाता है, उसके पंखों के तिनके-तिनके बिखेर देता है, जबकि आँख बंद करके दूध पीती हुई बिल्ली को लाठी पड़ जाती है. समूचे विश्व में पिछले दस-पंद्रह वर्षों से इस्लामिक आतंकवाद ने जिस तेजी से अपने पैर पसारे हैं, उसकी जड़ में गैर-इस्लामिक देशों और समुदायों का यही शतुरमुर्ग वाला रवैया रहा है. फ्रांस पर हुए हालिया "ट्रक बम" हमले के बाद विश्व में पहली बार किसी प्रमुख नेता ने ""इस्लामिक आतंकवाद"" शब्द का उपयोग किया है, वर्ना अमेरिका में जब मोहम्मद अत्ता ने हवाई जहाज लेकर ट्विन टावर गिराए थे, उस समय भी जॉर्ज बुश ने "इस्लामिक" शब्द को छोड़ दिया था, केवल "आतंकवाद" शब्द का उपयोग किया था. अर्थात "आतंकवाद" शब्द से "इस्लामिक आतंकवाद" शब्द तक आते-आते शतुरमुर्गों को इतने वर्ष लग गए. खैर, देर आयद दुरुस्त आयद... फ्रांस के राष्ट्रपति ने "इस्लामिक आतंकवाद" शब्द उपयोग करके संकेत दिया है कि कम से कम यूरोप और पश्चिमी देशों में ही सही, अब यह "बौद्धिक शतुरमुर्ग" अपना सिर रेत से निकालकर तूफ़ान की तरफ देखने और उसके खतरों को सही तरीके से समझने लगा है.
आज चारों ओर "इस्लामिक स्टेट" नामक क्रूर और खूँखार आतंकी संगठन के चर्चे हैं. कुछ वर्ष पहले जब तक ओसामा जीवित था, तब "अल-कायदा" का डंका बजता था... और उससे भी पहले जब अफगानिस्तान में बुद्ध की प्रतिमा को उड़ाया गया था, तब "तालिबान" का नाम चलता था. लेकिन इस्लामिक आतंक के इन विभिन्न नामधारी चेहरों का मूल बीज कहाँ है, इसकी शुरुआत कहाँ से हुई?? अतः इस वैश्विक समस्या को समझने के लिए हमें थोडा और पीछे जाना होगा. पहले हम समस्या के बारे में समझते हैं, फिर इसका निदान क्या हो, इस पर चर्चा होगी...
रणनीतिज्ञ सैयद अता हसनैन लिखते हैं किआजकल किसी भी वैश्विक समस्या को हल करने के लिए नेताओं अथवा कूटनीतिज्ञों या बुद्धिजीवियों के पास इतिहास पढ़ने का समय कम ही होता है, और आम जनता तो बिलकुल हालिया इतिहास तक भूल जाती है, जिस कारण समस्या की गहराई को समझने में सभी गच्चा खा जाते हैं. कट्टर इस्लाम की अवधारणा के बारे में यदि बहस करनी है, अथवा वैश्विक आतंकवाद को समझना है तो सबसे पहले हमें इतिहास में पीछे-पीछे चलते जाना होगा. चौदह सौ वर्ष पीछे न भी जाएँ तो भी सन 1979 को हम एक मील का पत्थर मान सकते हैं. अयातुल्लाह खोमैनी की याद तो सभी पाठकों को होगी?? जी हाँ, इस्लामी आतंक को "वैश्विक" आयाम देने की शुरुआत करने वाले खुमैनी ही थे. आज हम सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जो खूनी खेल देख रहे हैं, इसके मूल में 1979 में घटी तीन प्रमुख घटनाएँ ही हैं. पहली घटना है खुमैनी द्वारा प्रवर्तित "ईरानी क्रान्ति", जिसमें अयातुल्लाह खोमैनी ने ईरान के शाह रजा पहलवी को अपदस्थ करके सत्ता हथिया ली थी. इस दौर में तेहरान में अमेरिकी दूतावास के बावन राजनयिकों को 04 नवंबर 1979 से 20 जनवरी 1981 तक खोमैनी समर्थकों ने बंधक बनाकर रखा था. दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना भी 1979 में ही घटित हुई, जिसमें तत्कालीन सोवियत युनियन ने अफगानिस्तान में तख्तापलट करके अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश की, जिसके परिणामस्वरूप अमेरिका समर्थित और प्रशिक्षित "मुजाहिदीनों" एवं पाकिस्तान की मदद से लगातार नौ वर्ष तक रूस से युद्ध लड़ा. तीसरी घटना के बारे में अधिक लोग नहीं जानते हैं और ना ही इतिहास में यह अधिक प्रचारित हुई, वह थी सऊदी वहाबी सैनिकों के एक समूह "इख्वान" के एक सदस्य जुहामान-अल-तैयबी ने अपने समर्थकों के साथ मक्का में अल-मस्जिद-अल-हरम पर कब्ज़ा कर लिया. जुहामान ने यह कदम सऊदी राजवंश के कथित गैर-इस्लामी बर्ताव के विरोध में उठाया था, और इस घटना में उसके समर्थकों ने मक्का में आए हुए श्रध्दालुओं को चौदह दिनों तक बंधक बनाकर रखा. अंततः नवंबर 1979 में सऊदी राजवंश द्वारा फ्रांसीसी विशेष सुरक्षा बलों को बुलाया गया, जिन्होंने इस पवित्र मस्जिद में घुसकर इन आतंकियों का खात्मा किया था.
केवल तीस दिनों के अंतराल में घटी इन तीनों घटनाओं ने दुनिया का चेहरा ही बदलकर रख दिया. जैसा कि सभी जानते हैं, ईरान के शाह एक अमेरिकी मोहरे के रूप में काम करने वाले एक तानाशाह भर थे और अयातुल्लाह खोमैनी नामक मौलवी ने इस्लाम के नाम पर ईरान के युवाओं को अमेरिका और पश्चिमी संस्कृति के खिलाफ भड़काकर सत्ता हासिल कर ली. सऊदी राजवंश के लिए हैरानी की बात यह थी इस्लाम के इस कट्टर रूप को उनके वहाबी आंदोलन से नहीं, बल्कि ईरान के शिया आंदोलन ने बढ़ाया. सऊदी अरब जो चतुराई के साथ कट्टर इस्लाम को बढ़ावा देने में लगा हुआ था, उसे यह देखकर झटका लगा कि "शिया" समुदाय उसके खेल में उससे आगे निकला जा रहा है. दूसरी बात यह थी कि काबा की उस पवित्र मस्जिद में "इख्वान" के आतंकियों ने जिस प्रकार नागरिकों और सुरक्षा बलों को दो सप्ताह तक बंधक बनाया और हत्याएँ कीं, और इसके जवाब में सऊदी राजशाही ने फ्रांसीसी सैनिकों को मस्जिद में घुसने की अनुमति दी, उसके कारण सऊदी राजपरिवार पर मस्जिद को अपवित्र करने के गंभीर आरोप लगने लगे थे. यानी उधर ईरान में शियाओं के नेता खुमैनी द्वारा कट्टरता को बढ़ावा देने और इधर सऊदी में मस्जिद को अपवित्र करने के आरोपों के चलते सऊदी अरब के राजपरिवार और इस्लामी मौलवियों ने अपने "वहाबी कट्टरता" को और तीखा स्वरूप देने का फैसला कर लिया. यही वह मोड़ था जहाँ से पेट्रो-डॉलर के बूते दुनिया में "इस्लामिक वहाबी" को क्रूर, तीखा और सर्वव्यापी बनाने की योजनाएँ शुरू हुईं.
"कट्टर वहाबियत" को और हवा मिली अफगानिस्तान की घटनाओं से. रूस ने अफगानिस्तान के काबुल में अतिक्रमण करते हुए अपने कठपुतली बबरक करमाल की सरकार बनवा दी और जमकर शक्ति प्रदर्शन किया. इस कारण अफगानिस्तान से लगभग पचास लाख मुस्लिम शरणार्थी पड़ोसी पाकिस्तान और ईरान में भाग निकले. इस क्षेत्र में कच्चे तेल की प्रचुर मात्रा को देखते हुए सऊदी अरब में अड्डा जमाए बैठे अमेरिका को अपनी बादशाहत पर खतरा महसूस होने लगा और वह भी तालिबानों को प्रशिक्षण देकर रूस को कमज़ोर करने के इस हिंसक खेल में एक खिलाड़ी बन गया. "तेल के इस निराले खेल" के बारे में हम बाद में देखेंगे, पहले हम वहाबियत और सुन्नी आतंक के प्रसार पर आगे बढ़ते हैं. अफगानिस्तान में हुए इस घटनाक्रम ने सऊदी राजशाही को वहाबी विचारधारा फैलाने में खासी मदद की. उसने अमेरिका की मदद से पाकिस्तान की अफगान सीमा पर हजारों शरणार्थी कैम्प बनाए और उन कैम्पों को "तालिबान" का मानसिक प्रशिक्षण केन्द्र बना डाला. सऊदी ब्राण्ड मौलवियों ने इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान और अफगानिस्तान में लाखों लोगों का जमकर "ब्रेनवॉश" किया, जो कि सऊदी राजशाही को पसंद आया, क्योंकि ऐसा करने से उसकी "कट्टर इस्लामी" छवि बरकरार रही और मुसलमान काबा की मस्जिद का अपवित्रीकरण वाला मामला भूल गए. इस खेल में सऊदी अरब को केवल पैसा लगाना था, बाकी का काम वहाबी काम मुल्ला-मौलवियों को और सैनिक कार्य अमेरिका को करना था. सोवियत संघ के अफगानिस्तान से चले जाने के बाद भी यह खेल जारी रहा और अन्य इस्लामिक देशों में पहुँचा. कहने का तात्पर्य यह है कि 1979 में घटित होने वाली इन्हीं प्रमुख घटनाओं ने मध्य एशिया में वहाबी विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया और साथ ही मुसाब-अल-ज़रकावी (ISIS का जनक), ओसामा बिन लादेन और आयमान-अल-जवाहिरी जैसे कुख्यात आतंकियों को फलने-फूलने का मौका दिया. इन लोगों ने सऊदी पैसों का जमकर उपयोग करते हुए न सिर्फ अपना जलवा कायम किया, बल्कि "वहाबी इस्लाम की कट्टर विचारधारा को विश्वव्यापी बनाया, जिसका जहरीला व्यापक रूप हम इक्कीसवीं शताब्दी में देख रहे हैं.
आतंक के इस वहाबी खेल में एक और खिलाड़ी सारे घटनाक्रम को चुपचाप देख रहा था और इसमें उसका और उसके देश का फायदा कैसे हो यह सोच रहा था... वह "खिलाड़ी"(?) था पाकिस्तान का जनरल जिया-उल-हक. विश्व में घट रहे इस घटनाक्रम ने जनरल ज़िया को यह मौका दिया कि वह खुद को जिन्ना के बाद पाकिस्तान के सबसे वफादार इस्लामिक रहनुमा के रूप में खुद को पेश कर सके. 1977 में जुल्फिकार अली भुट्टो को अपदस्थ करके सैनिक विद्रोह से तानाशाह बने जनरल जिया-उल-हक ने 1979 में भुट्टो को सूली पर लटका दिया था. जिया-उल-हक यह बात अच्छी तरह से समझ चुका था कि भारत से सीधे युद्ध में नहीं जीता जा सकता, क्योंकि पिछले दोनों युद्ध जिया ने करीब से देखे थे. भारत को नुक्सान पहुँचाने के लिए जनरल जिया ने "Thousand Cuts" नामक नई रणनीति बनाई, जिसमें भारत के अंदर ही अंदर विवादित मुद्दों को हवा देना, आतंकियों से हमले करवाना, सेना और नागरिकों पर छोटे-छोटे हमले करवाना प्रमुख था (जनरल ज़िया की यह रणनीति पाकिस्तान और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी ISI आज भी जारी रखे हुए है). जनरल ज़िया ने समय रहते ताड़ लिया था कि अमेरिका-रूस-सऊदी अरब के इस "युद्ध त्रिकोण" में यदि अधिकतम फायदा उठाना है तो "वहाबी विचारधारा" को बढ़ावा देते हुए सऊदी अरब और अमेरिका से पैसा झटकते रहना है. जनरल ज़िया जानता था कि यदि सुरक्षित रहना है और अनंतकाल तक विश्व को ब्लैकमेल करना हो तो "परमाणु ताकत" बनना जरूरी है, और इस काम के लिए बहुत सा धन चाहिए, जो केवल सऊदी अरब और जेहाद के नाम पर ही हासिल किया जा सकता है. उसने ठीक ऐसा ही किया, एक तरफ लगातार भारत के खिलाफ छद्म युद्ध जारी रखा और दूसरी तरफ सऊदी अरब को खुश करने के लिए उनका प्रिय बना रहा. सऊदी अरब का अकूत धन, वहाबी विचारधारा और परमाणु ताकत बनने के लिए सारे इस्लामिक जगत का राजनैतिक समर्थन, ज़िया-उल-हक को और क्या चाहिए था. बड़ी चतुराई से जनरल ज़िया ने पाकिस्तान को वहाबी आतंक की मुख्य धुरी बना लिया. और चीन एवं उत्तर कोरिया की मदद से परमाणु ताकत हासिल करके अमेरिका को ब्लैकमेल करने की स्थिति में ला दिया. ज़िया-उल-हक ने सऊदी राजपरिवार और प्रशासन की सुरक्षा हेतु 1989 में पाकिस्तान से एक पूरी ब्रिगेड बनाकर दी. इसके अलावा उसने अफगान सीमा पर स्थित शरणार्थी कैम्प में मदरसों की खासी संख्या खड़ी कर दी, जहाँ कट्टर मौलवियों ने सोवियत संघ के खिलाफ मुजाहिदीन तालिबानों को तैयार कर दिया. इन्हीं मुजाहिदीनों ने इस्लाम के नाम पर लगातार अपना युद्ध जारी रखा और अंततः नब्बे के दशक में अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्ज़ा कर ही लिया. इसके बाद तालिबान कश्मीर, बोस्निया, चेचन्या सहित बाकी विश्व में फैलना शुरू हो गए. अस्सी के दशक के अंत तक वहाबी विचारधारा और आतंक को मजबूत करने का यह खेल लगातार जारी रहा, क्योंकि वहाबियों को किसी भी कीमत पर ईरान के "शियाओं" के साथ शक्ति संतुलन में अपना वर्चस्व बनाए रखना था. इसीलिए जब से ईरान ने भी अपनी परमाणु शक्ति बढ़ाने का खुल्लमखुल्ला ऐलान कर दिया तो वहाबी पाकिस्तान अपने इस्लामिक परमाणु एकाधिकार को लेकर चिंतित हो गया. शिया ईरान को रोकने के लिए वहाबी विचारक अमेरिका की चमचागिरी से लेकर अन्य किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे. अमेरिका ने इन दोनों का बड़े ही शातिराना ढंग से उपयोग किया और अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने तथा उपभोगवादी जनता के लिए इन देशों से जमकर तेल चूसा.
अमेरिका के इस खेल को सबसे पहली चुनौती मिली इराक के सद्दाम हुसैन से. सद्दाम हुसैन ने अमेरिका का खेल समझ लिया था और उसने सोचा कि क्यों न वह खुद ही इस खेल को खेले और ईराक को ईरान के मुकाबले मजबूत बना ले. इसी मुगालते में सद्दाम ने कुवैत पर हमला कर दिया और दर्जनों हत्याओं के साथ कुवैत के सैकड़ों तेल कुंए जला डाले. लेकिन सद्दाम का यह दुस्साहस उसे भारी पड़ा. अमेरिका से सीधी दुश्मनी और तेल पर कब्जे की लड़ाई में खुद तनकर खड़े होने अमेरिका को रास नहीं आया और उसने सद्दाम को ठिकाने लगाने के लिए नए जाल बुनने शुरू कर दिए. कहने का तात्पर्य यह है कि इस्लामी अर्थात वहाबी विचारधारा से पोषित आतंकवाद को समझने के लिए इस इतिहास को खंगालना बेहद जरूरी है. खुमैनी, सऊदी अरब और ज़िया-उल-हक की तिकड़ी तथा अमेरिका-रूस के बीच वैश्विक वर्चस्व की इस लड़ाई ने आतंकवाद को पोसने में बड़ी भूमिका निभाई... आज फ्रांस, फ्लोरिडा, बेल्जियम, ढाका आदि में जो लगातार हमले हम देख रहे हैं, वह इसी ऐतिहासिक "रक्तबीज" के अंश ही हैं.
किसी समस्या को जड़-मूल से ख़त्म करने के लिए आयुर्वेदिक चिकित्सक सबसे पहले उस बीमारी का इतिहास जानते हैं, फिर कारण जानते हैं और उसी के अनुसार निवारण भी करते हैं. अभी जो हमने देखा वह इस्लामिक आतंकवाद की जड़ को, उसके इतिहास को समझने का प्रयास था. अब हम आते हैं कारण की ओर. आतंकवाद वर्तमान समय में इस विश्व की सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरा है, ऐसी समस्या जो कम होने की बजाय लगातार बढती ही जा रही है. यह समस्या ऐसा गंभीर रोग बन गयी है जिसका आज तक समाधान नहीं निकल पाया है. इस्लामिक आतंकवाद की इस समस्या को समझने के लिए सबसे पहले तो विश्व के तमाम नेताओं, लेखकों, बुद्धिजीवियों को यह समझना और मान्य करना होगा कि इसका सीधा सम्बन्ध मज़हबी व्याख्याओं से है. इस्लामिक आतंकवाद से लड़ने के लिए सैनिक, गोला-बारूद और टैंक कतई पर्याप्त नहीं हैं. जब तक हम शार्ली हेब्दो के कार्टून पर फ्रांस में मचाए गए कत्लेआम, अथवा डेनमार्क के कार्टूनिस्ट की हत्या अथवा सलमान रश्दी के खिलाफ फतवे अथवा यजीदी महिलाओं के साथ बलात्कार और उन्हें गुलामों की तरह खरीदे-बेचे जाने के पीछे की मानसिकता को नहीं समझते, और स्वीकार करते तब तक सभी लोग केवल अँधेरे में तीर चला रहे होंगे और अनंतकाल तक चलने वाले इस युद्ध में खुद को झोंके रखेंगे. जिस तरह फ्रांस के राष्ट्रपति अथवा अमेरिका के राष्ट्रपति उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने खुलेआम कहा, उसी तरह स्वीकार कीजिए कि इस्लाम की शिक्षाओं एवं कुरआन की व्याख्याओं के गलत-सलत अनुवादों एवं मुल्ला-मौलवियों द्वारा मनमाने तरीके से हदीस और शरीयत को लागू करने के कारण ही यह समस्या नासूर बनी है. यह एक तरह से मलेरिया के खिलाफ युद्ध है. केवल मच्छर मारने अथवा कुनैन की गोली खिलाने से मरीज की बात नहीं बनेगी, बल्कि जिस गंदे पानी में मलेरिया के लार्वा पनप रहे हैं, जहां से प्रेरणा ले रहे हैं, उस पानी में दवा का छिड़काव जरूरी है. अर्थात मूल समस्या यह है की इस्लामिक धर्मगुरुओं द्वारा मनमाने तरीके से कुरआन-हदीस की व्याख्या की गई है, सबसे पहले बौद्धिक रूप से युद्ध करके उसे दुरुस्त करना पड़ेगा. भारत के इस्लामिक बुद्धिजीवी मौलाना वहीदुद्दीन खान ने समस्या की जड़ को बिलकुल सही पकड़ा है. वहीदुद्दीन लिखते हैं कि चूंकि विभिन्न देशों में कार्यरत मौलवियों, उलेमाओं और काज़ियों की उनके इलाके की जनता पर खासी पकड़ होती है, इसलिए वे चाहते हैं कि उनका यह वर्चस्व बना रहे, इसलिएतात्कालिक परिस्थितियों के मुताबिक़ वे कुरआन-हदीस और शरीयत के मनमाने मतलब निकालकर मुस्लिम समुदाय को दबाए रखते हैं. कुछ मौलवी तो इस हद तक चले जाते हैं, कि उनके अलावा कोई दूसरा मुसलमान कुरआन की व्याख्या कर ही नहीं सकता.
मौलाना वहीदुद्दीन खान के अनुसार कुरआन के नाज़िल होने के पश्चात कई वर्षों तक इस्लामिक समाज के नियमों एवं मान्यताओं पर कई विद्वानों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार उसकी व्याख्या की जिसे तत्कालीन शासकों का समर्थन भी मिलता रहा, और धीरे-धीरे यह मान लिया गया कि यह सब कुरआन में ही है और मौलवी कह रहे हैं तो सही ही होगा. एक और इस्लामिक विद्वान तारेक फतह कहते हैं कि पैगम्बर मोहम्मद द्वारा पूरी कुरआन लगभग तेईस वर्ष में नाज़िल की गई. ईस्वी सन 632 में पैगम्बर मोहम्मद की मृत्यु के पश्चात ही विवाद शुरू हो गए थे. अपनी पुस्तक में तारिक लिखते हैं की पैगम्बर मोहम्मद की जीवनी जिसे सूरा कहते हैं, लगभग सौ वर्ष बाद लिखी गई, इसी प्रकार हदीस को भी लगभग दो सौ से चार सौ वर्षों के बीच लगातार लिखा जाता रहा. जबकि शरीयत क़ानून पैगम्बर की मौत के चार सौ से छः सौ वर्ष बाद तक लिखे जाते रहे, उसमें बदलाव होते रहे, उसकी मनमानी व्याख्याएँ की जाती रहीं. इस्लाम की सबसे कट्टर व्याख्याएँ अब्दुल वहाब (1703-1792) द्वारा की गईं. सन 1803 से 1813 तक मक्का पर सऊदी नियंत्रण था, उसके बाद ओटोमान ने इसे वापस हासिल किया. हालांकि अंत में 1925 में यह पुनः सऊदी कब्जे में आया और सऊदी साम्राज्य ने मक्का-मदीना की लगभग 90% इमारतें गिरा दीं, यहाँ तक की जिसमें खुद पैगम्बर मोहम्मद रहते थे उस इमारत को भी नहीं छोड़ा. अब ये कट्टर वहाबी रूप इस कदर फ़ैल गया है की ISIS ने भी विभिन्न मज़ारों और इस्लाम की ऐतिहासिक धरोहरों को ही नष्ट करना शुरू कर दिया है. ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस्लाम की धार्मिक व्याख्याओं में कितना घालमेल है, और इसी वजह से भारत में जाकिर नाईक, पाकिस्तान में अल-जवाहिरी अथवा ब्रिटेन में अंजेम चौधरी जैसे तथाकथित इस्लामिक विद्वान बड़ी आसानी से युवाओं को बरगला लेते हैं.इस्लाम के संस्थापक पैगम्बर मोहम्मद निश्चित रूप से एक चतुर और बुद्धिमान व्यक्ति थे, उन्होंने अपनी प्रत्येक रणनीति को सीधे "अल्लाह" से जोड़ दिया और अपने प्रत्येक विरोधी को काफ़िर घोषित कर दिया. तत्कालीन परिस्थितियों में उनकी वह रणनीति कामयाब भी रही, लेकिन उनकी मृत्यु के पश्चात इसी विचार को आगे बढाते हुए ढेरों मौलवियों ने सैकड़ों वर्ष तक कुरआन की मनमानी व्याख्या की. ऐसे में इस विचारधारा का मुकाबला केवल गोलियों-बम-बन्दूकों से संभव नहीं है, इसे तो बौद्धिक स्तर पर लड़ना होगा. वहाबी इस्लाम तो शियाओं के साथ सहा-अस्तित्त्व को भी राजी नहीं है. वहाबी मूवमेंट में निशाने पर सबसे पहले शिया ही रहे हैं, जिनका अस्तित्व खत्म करने के लिए सऊदी अरब पोषित इस्लाम ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. अतः कोई यह कैसे कह सकता है कि, आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता? परन्तु आतंकी तो मौलवियों द्वारा इस्लाम की गलत व्याख्या के कारण इसे अल्लाह और कुरान का आदेश मानते हैं. मुस्लिम समुदाय के अन्दर से आवाज़ उठनी चाहिए कि वे ऐसे आरोपों से बचना चाहते हैं. ये लोग खुलकर आतंकवाद के खिलाफ आगे आएँ और कहें कि आतंकवादी अपने साथ इस्लाम शब्द को जोड़ना बंद करें. अपने कुकर्मों को अल्लाह या कुरान का आदेश बताना बंद करें. तमाम आतंकी संगठनों के नाम में इस्लाम के पवित्र शब्दों को रखना बंद करें. क्योंकि जब तक मुस्लिम समुदाय खुद को नहीं बदलता, और अपनी मजहबी संकीर्ण सोच खत्म करके आतंकियों, मुल्ला-मौलवियों के खिलाफ उठ खड़ा नहीं होता, तब तक उसे ऐसे आरोप झेलने ही पड़ेंगे. ज़ाहिर है कि यह काम इस्लाम के भीतर से ही होगा, बाहर से कोई गैर-इस्लामी व्यक्ति इस बहस में घुसेगा तो न सिर्फ मुंह की खाएगा, बल्कि उसकी मंशा पर भी शक किया जाएगा. इसलिए तारिक फतह, तसलीमा नसरीन, सलमान रश्दी, मौलाना वहीदुद्दीन खान, जूडी जेसर, अली सिना, इमरान फिरासत जैसे लोगों को आगे आना होगा, विमर्श आरम्भ करने होंगे, विभिन्न देशों में स्थित मुसलमानों को इस्लाम की सही व्याख्या करके दिखानी होगी, सेमिनार-पुस्तकें इत्यादि आयोजित करने होंगे. लेकिन साथ ही साथ आतंकियों के सामने घुटने नहीं टेकने की ठोस नीति बनानी होगी. इसीलिए विभिन्न सरकारों, गुप्तचर सेवाओं को साथ लेना होगा, तथा विशेषकर पाकिस्तान (जो इस आतंक का वैचारिक पोषक है) पर नकेल कसनी होगी.
ये तो हुआ पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण कदम यानी कट्टर इस्लाम का उदार इस्लाम से बौद्धिक युद्ध. इसी के साथ जुडी हुई वैचारिक भ्रान्तियों को भी दूर करने की जरूरत है. यह वैचारिक भ्रान्तियाँ वामपंथियों तथा सेकुलर बुद्धिजीवियों ने फैला रखी हैं. जिसमें से सबसे पहली भ्रान्ति है कि – "ये आतंकी गरीब और अनपढ़ हैं, इसलिए मौलवियों के जाल में फँस जाते हैं". यह सबसे बड़ा झूठ है जो चरणबद्ध तरीके से फैलाया गया है, क्योंकि खुद ओसामा बिन लादेन अरबपति था, अच्छा-ख़ासा पढ़ा लिखा था. ट्विन टावर से हवाई जहाज भिड़ाने वाला मोहम्मद अत्ता पायलट था, बंगलौर से ISIS का ट्विटर हैंडल चलाने वाला प्रमुख स्लीपर सेल सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. यानी कि पेट्रो-डॉलर में अरबों रूपए कमाने वाले देशों द्वारा बाकायदा जिन मुस्लिम लड़कों का ब्रेनवॉश किया जाता है, उनमें से अधिकाँश पढ़े-लिखे इंजीनियर, डॉक्टर, सॉफ्टवेयर कर्मी तथा मैनेजमेंट स्तर की पढ़ाई कर चुके लोग हैं. ज़ाहिर है कि शिक्षा की कमी वाला तर्क एकदम बेकार है... इसी प्रकार यह कहना भी एकदम बकवास है कि मुस्लिम आतंक के पीछे शोषण या गरीबी है. जब "तथाकथित" बुद्धिजीवी यह बहानेबाजी बन्द कर देंगे कि इस्लामिक आतंक की समस्या शोषण, गरीबी, अथवा अशिक्षा है, तभी इस समस्या का हल निकाला जा सकता है, क्योंकि यह सिद्ध हो चुका है कि यह समस्या केवल और केवल मौलवियों तथा निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा कुरआन-हदीस-शरीयत की गलत व्याख्या और जेहाद तथा बहत्तर हूरों जैसी कहानियाँ सुनाकर मज़हबी वैचारिक ज़हर फैलाने के कारण है. इसका मुकाबला करने के लिए वैचारिक पाखण्ड छोड़ना पड़ेगा, और मिलकर काम करना होगा. जहाँ-जहाँ सैनिक शक्ति जरूरी है, वह तो सरकारें कर ही रही हैं, परन्तु बौद्धिक युद्ध ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. इस्लामी जगत में बच्चों को वैचारिक रूप से जागरूक बनाना होगा, उनके सामने इस्लाम की सही तस्वीर पेश करनी होगी और जवाहिरी-लादेन-ज़ाकिर-अंजुम जैसे इस्लाम को विकृत करने वाले प्रचारकों पर लगाम कसनी होगी.
इस्लामिक आतंकवाद की समस्या का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू है, जो कि अर्थव्यवस्था और धन से जुड़ा हुआ है और इस पहलू पर भी केवल इस्लामिक देशों द्वारा ही काबू पाया जा सकता है. यह पहलू है कच्चे तेल से जुडी राजनीति का. विश्व की महाशक्तियाँ इस्लामी देशों से निकलने वाले तेल पर शुरू से निगाह बनाए हुए हैं. कच्चे तेल के बैरलों की भूख ने दुनिया में लाखों मासूमों का खून बहाया है. उल्लेखनीय है कि अमेरिका ने सऊदी अरब के राजपरिवार पर लगभग कब्ज़ा किया हुआ है. अमेरिका ने सऊदी अरब में अपना स्थायी अड्डा जमा रखा है.सभी जानते हैं कि अमेरिका महा-उपभोगवादी देश है और पेट्रोल का प्यासा है. सबसे पहले अमेरिका ने ही "तेल का खेल" शुरू किया और सऊदी अरब को अपने जाल में फँसाया. सद्दाम हुसैन पर नकली आरोप मढ़कर ईराक को बर्बाद करने और वहाँ के तेल कुओं से कच्चा तेल हथियाने का खेल भी अमेरिका ने ही खेला. अमेरिका की देखादेखी रूस भी इस खेल में कूदा और दस साल तक अफगानिस्तान में जमा रहा. चाहे नाईजीरिया हो, अथवा वेनेजुएला हो.. जिस-जिस देश में अकूत तेल की सम्पदा है, वहाँ-वहाँ अमेरिका की टेढ़ी निगाह जरूर पड़ती है. हाल ही में तुर्की में हुए जी20 शिखर सम्मेलन के मौके पर दुनिया के सभी देशों ने पेरिस में हुए आंतकी हमले की भरसक निंदा की. परन्तु सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने हैरतअंगेज खुलासा किया कि दुनिया के चालीस से अधिक देश आंतकवाद को फाइनेंस कर रहे हैं, और इसमें से कई देश जी20 समूह में शामिल हैं.
पुतिन ने इन देशों के नाम तो नहीं लिया लेकिन यह जरूर साफ किया कि इनमें से कुछ ऐसे देश हैं, जो दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हैं. चूँकि जी20 समूह दुनिया की बीस सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का समूह है. इनमें अमेरिका, चीन, फ्रांस, सउदी अरब, ब्राजील और भारत या खुद रूस भी हो सकता है. पिछले एक साल में जिस तरह से इस्लामिक स्टेट (आईएस) ने काला झंडा उठा रखा है और सीरिया तथा ईराक के तेल के भंडारों पर कब्जा किया है, उससे साफ है कि यह आतंकवाद का नया दौर है, जहां एक इस्लामिक कट्टर संगठन एक स्वयंभू "राज्य" बनने की कोशिश कर रहा है. पश्चिमी मीडिया और कच्चे तेल के कारोबार से जुड़े संगठन दावा कर चुके हैं, कि ISIS अपने कब्जे वाले तेल के भंडारों से तेल निकाल कर बहुत कम दामों पर बेच रहा है. जिस कारण तेल की कीमतों के अन्तर्राष्ट्रीय भावों में अस्थिरता बनी हुई है और कई देश इस उतार-चढ़ाव की चपेट में हैं. अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में पिछले एक साल से कच्चा तेल 110 डॉलर के स्तर से गिरकर 40 डॉलर के आसपास बिक रहा है. उधर ओपेक देशों (जिनमें सभी इस्लामिक देश हैं) की आपसी खींचतान में ईराक सरकार के तेल भंडारों से जमकर तेल निकाला जा रहा है. तेल के बाजार में अपनी उपस्थिति बनाए रखने के लिए ईराक सरकार को 30 डॉलर प्रति बैरल की दर पर कच्चा तेल बेचना पड़ रहा है. जबकि उधर ISIS अपने कब्जे वाले भंडारों से तेल निकाल कर अंतरराष्ट्रीय बाजार में 20 डॉलर प्रति बैरल की दर से बेच रहा है. रूसी राष्ट्रपति पुतिन के अनुसार रूस ने अपने सैटेलाइट के द्वारा देखा है कि ISIS के कब्जे वाले इलाकों में हजारों की संख्या में कच्चा तेल लेने के लिए टैंकरों के भीड़ लगी हुई है.
अब यहाँ सवाल उठता है कि जब ISIS बीस डॉलर की दर से तेल बेच रहा है और करोड़ों रूपए कमा रहा है तो यह पैसा कहाँ जा रहा है? ज़ाहिर है कि हथियार और अन्य सैन्य उपकरण खरीदने में. विश्व में हथियारों का सबसे बड़ा विक्रेता कौन है, अमेरिका.अर्थात घूम-फिरकर पैसा पुनः अमेरिका के पास ही पहुँच रहा है. तमाम इस्लामिक आतंकी संगठन दावा करते हैं कि अमेरिका और इजरायल उनके दुश्मन नंबर वन हैं, लेकिन वास्तव में देखा जाए तो "कच्चे तेल के इस आर्थिक गेम" में सबसे बड़ा खिलाड़ी, अम्पायर और विपक्ष खुद अमेरिका ही है. इस्लामिक देशों के शासक या तो बेवकूफ हैं, या लालची हैं. अमेरिका ने सऊदी अरब में अपनी मनमर्जी चला रखी है, इसी तरह "ओपेक" देशों में से कई देशों में उसकी कठपुतली सरकारें काम कर रही हैं. परन्तु गलती अकेले अमेरिका की ही क्यों मानी जाए? मुस्लिम बुद्धिजीवी और इस्लामिक जगत के प्रभावशाली लोग इन इस्लामी शासकों को यह बात क्यों नहीं समझाते कि जब तक पश्चिमी देशों का दखल इस इलाके में बना रहेगा, तब तक आपस में युद्ध भी चलते रहेंगे, मारकाट और आतंक भी पाला-पोसा जाता रहेगा. हमेशा से अमेरिका के दोनों हाथों में लड्डू रहते हैं. ईरान-ईराक के दस वर्ष लंबे युद्ध में दोनों देशों को हथियार बेचकर सबसे अधिक कमाई अमेरिका ने ही की. जब युद्ध समाप्त हो गया, तब भी विभिन्न बहाने बनाकर वह क्षेत्र में पैर जमाए बैठा रहा. रूस और चीन, अमेरिका का यह खेल समझते हैं परन्तु खुलकर उससे दुश्मनी लेने से बचते रहे हैं. यदि अमेरिका और पश्चिमी देश चाहें तो कभी भी ISIS का खात्मा कर सकते हैं, लेकिन फिर बीस डॉलर के भाव से मिलने वाला कच्चा तेल भी मिलना बन्द हो जाएगा और हथियारों की बिक्री भी बन्द हो जाएगी.
अंत में संक्षेप में इतना ही कहना है कि "इस्लामिक आतंकवाद" की समस्या केवल जलेबी ही नहीं बल्कि इमरती और नूडल्स की तरह टेढ़ी-मेढ़ी और उलझी हुई है. इसमें कई पक्ष आपस में एक-दूसरे से टकरा रहे हैं. फिर भी जैसा कि लेख में सुझाया गया है, यदि इस्लामिक विद्वान और बुद्धिजीवी कुरआन-हदीस की सही और सटीक व्याख्याएँ करके आने वाली पीढ़ी को जेहादी मानसिकता से दूर ले जाने में सफल हों तथा इस्लामिक देश अपने यहाँ अमेरिका व पश्चिमी देशों का दखल बन्द करके अपने लालच (और मूर्खता) में कमी लाएँ, तो काफी हद तक इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है. ज़ाहिर है कि ये उपाय अपनाना इतना सरल भी नहीं है, तो लड़ाई लंबी है. कल फ्रांस था, आज इस्ताम्बुल है, तो कल बाली या परसों कोलकाता भी हो सकता है और मानवता के पैरोकार व शांति की चाहत रखने वाले सामान्य मनुष्य के लिए फिलहाल तो कोई राहत नहीं है...
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