Monday, October 27, 2014

Fwd: FW: Hindi Bhashya from M G Vaidya





 

 

 

बच्चों की शिक्षा और परिवार

 बच्चों की शिक्षा का प्रारंभ उनके परिवार से ही होना चाहिये। इस के लिये माता का बडा महत्त्व है। वीर अभिमन्यू जब अपनी माँ के गर्भ में थातभी उसने भगवान् श्रीकृष्ण से चक्रव्यूह का भेद करने की कला सीख ली थी। इस प्रसंग को कपोलकल्पित समझकर उस पर अविश्‍वास करना योग्य नहीं। नया विज्ञान भी कहता है कि गर्भ पाँच महिनों का होने पर भ्रूण को संवेदना प्राप्त होती हैं। अनेक शिक्षित महिला डॉक्टर गर्भसंस्कार केंद्र चलाते हैं। गर्भवती स्त्री के वाचन काव्यवहारों का तथा संस्कारों का भी परिणाम भ्रूणपर होता है।

 माता का सान्निध्य

मेरी दृष्टि से बच्चों की आयु के छ: वर्ष पूर्ण होने तकउन्होंने अपनी माता के साथ ही रहना चाहिये। मैं प्राथमिक वर्गों के पूर्वशिक्षा देने वाली व्यवस्था से अनुकूल नहीं हूँ। आज शिक्षित महिलाएं नौकरी करती हैं। डेढ-दो साल के बच्चों को एक तो नौकरानी के हाथ सौंपती हैं,या पालनाघर में भेजती हैं। और तीन साल पूरे होते ही उसे स्कूल भेजती हैं। यह पद्धति संस्कारों की दृष्टि से ठीक नहीं है। आखिर शिक्षा का उद्देश्य क्या है। पैसे कमाने की कला सिखाना यह शिक्षा का उद्देश्य नहीं हो सकता। शिक्षा के कारण व्यक्तिसमाज का अच्छाशीलवान्,सभ्य नागरिक बनेयही शिक्षा का सही उद्दिष्ट है। और जिस वातावरण मेंवह संस्कारक्षम अवस्था में रहता हैउस वातावरण का बडा महत्त्व है। ऐसा वातावरण परिवार में ही निर्माण करना सुलभ है। 

एक प्रयोग

बच्चों को अच्छे संस्कार प्राप्त हो इस लिये गर्भवती ने भी अच्छी किताबे पढनी चाहिये। हमने अठरा वर्षों तक अपने घर में चातुर्मास में प्रतिदिन रात को 9 से 10 बज तक अच्छे किताबों के सामूहिक वाचन का कार्यक्रम चलाया था। छोटे से छोटे बच्चों से लेकरघर के सब लोग उस में शामिल हो यह नियम था। अडोस-पडोस के कुछ परिवार भी आते थे। अच्छे विचारों का आप ही आप प्रक्षेपण होता था। इस के सुफल हमने देखे हैं। हर घर में इस प्रकार अपने परिवारजनों के लियेवर्ष में कुछ समय तक यह सामूहिक वाचन का प्रयोग हो। परिवारजनों के ज्ञान की भी वृद्धि होगी और संस्कार भी होंगे। संस्कार का अर्थ अच्छा होना। जैसा है वैसा रहना यह प्रकृति है। पशु प्रकृति से ही चलते हैं। किन्तु मानव संस्कृति-सम्पन्न हो सकता है। इस हेतु संस्कारों का विशेष महत्त्व है। संस्कार यानी वे उपाय हैं जिनसे मनुष्य शीलवान्बलवान्विजिगीषु और देशाभिमानी बन सकता है। ऐसे मनुष्य ही अपने समाज का गौरव बढा सकते है।

 नौकरी का सवाल

कोई सवाल करेगा कि क्या महिलाओं ने नौकरी नहीं करनी चाहिये। मैं कहूँगा कि अवश्य करें। किन्तु छोटे से छोटा बच्चा छ: वर्षों का होने के बाद। अच्छे परिवारों में महिलाओं के नौकरी की आर्थिक दृष्टि से आवश्यकता भी रहती नहीं। शिक्षित होने पर नौकरी करनीही चाहिये यह कौनसी रीत है। महिलाएं निजी व्यवसाय भी कर सकती हैं। ट्यूशन क्लासेस भी चला सकती हैं। आयु की जिस अवस्था में बच्चा अच्छे संस्कार ग्रहण कर सकता हैउस अवस्था में संस्कार देने की व्यवस्था होयह मेरे प्रतिपादन का मतलब है। 

परीक्षा की व्यवस्था

बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार होयह बात अब सर्वमान्य हो गयी है। वह ठीक ही है। किन्तु छ: वर्षों का होने के बाद ही वह पाठशाला जाये। आज के जमाने में गुरुकुल की व्यवस्था फिर से नहीं लाई जा सकती। किन्तु जैसा शिक्षा लेने का अधिकार हैवैसाही शिक्षा देने का भी अधिकार हो। शासन के द्वारा परीक्षा लेने की व्यवस्था हो। चार वर्षों के बादतथा 7 वी और 10 वी के पश्‍चात्ऐसी शासन पुरस्कृतकिन्तु स्वत: में स्वायत्त और स्वतंत्र व्यवस्था हो। प्राथमिकपूर्व माध्यमिक और माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर यह व्यवस्था बच्चों की परीक्षा लेगी। और उनके आगे बढने का मार्ग प्रशस्त करेगी। 

राष्ट्र के लिये

बच्चा पाठशाला में जाने लगने के पश्‍चात भी अपने घर का वातावरण संस्कारों के अनुकूल रखने का दायित्व माता-पिता का है। ऐसे प्राप्त संस्कार बच्चों को आयु के अठारह वर्ष पूर्ण होने के बाद उन्हे स्वतंत्रता रहे। मुझे विश्‍वास है कि संस्कारक्षम आयु में प्राप्त संस्कारों के कारण वह सभ्यसच्छीलस्वाभिमानीराष्ट्राभिमानी नागरिक के नाते अपने को प्रस्तुत करेगा। जिस से अपना राष्ट्र भी बडा होगा। आखिर राष्ट्र भी क्या होता हैराष्ट्र यानी लोग ही होते हैं। People are the Nation.और जैसे लोग होंगे वैसाही राष्ट्र होगा। लोगों से ही राष्ट्र बनता है। किसी व्यवस्था से नहीं। 

-मा. गो. वैद्य
दि. 13-10-2014

 

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M G Vaidya,

09881717809




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