Wednesday, May 14, 2014

सेकुलर' राजनीति का 'लज्जा' जनक सच


'सेकुलर' राजनीति का 'लज्जा' जनक सच

तस्लीमा नसरीन ने सेकुलरिज्म की आड़ में कट्टरपंथ का पोषण करने वाली राजनीति पर गंभीर सवाल उठाया है। यह सवाल लोकतंत्र की रक्षा का है, और नारी के सम्मान की रक्षा का भी। सवाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी है, और उदार भारतीय मूल्यों की उपासना का भी ।सवाल यह भी है, कि घुसपैठिए और शरणार्थी में अंतर करना हम सीख पाए हैं क्या ?

 

- प्रशांत बाजपेई

तारीख: 10 May 2014 17:04:54

http://www.panchjanya.com/Encyc/2014/5/10/%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B0-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B2%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%A3-%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%95-%E0%A4%B8%E0%A4%9A.aspx?NB=&lang=5&m1=&m2=&p1=&p2=&p3=&p4=&PageType=N

 

51 वर्षीय बंगलादेशी लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नाम दुनिया ने तब जाना, जब 1993 में उनका उपन्यास 'लज्जा' प्रकाशित हुआ। बंगलादेश में कट्टरपंथी मुसलमानों के द्वारा प्रताडि़त हो रहे बंगलादेशी हिंदुओं की मर्मकथा कहने वाला 'लज्जा' कट्टरपंथियों की आंखों में गड़ने लगा, और तस्लीमा पर वैचारिक और शारीरिक हमले शुरू हो गए। उन्माद भड़काया जाने लगा। अक्तूबर 1993 में 'काउंसिल ऑफ इस्लामिक सोल्जर्स' नामक संगठन ने तस्लीमा के सिर पर इनाम घोषित कर दिया। तस्लीमा को अपना घर, अपना देश छोड़कर निर्वासित होना पड़ा।

भारत में घर की तलाश-

अगस्त 1994 में द स्टेट्समैन, कोलकाता ने तस्लीमा का साक्षात्कार छापा, जिसमें तस्लीमा ने 'शरिया कानून ' के औचित्य पर चर्चा प्रारंभ की। इसके तत्काल बाद हजारों उन्मादी सड़कों पर उपद्रव करने उतर आए। और तस्लीमा को मृत्युदंड देने की मांग करने लगे। तस्लीमा पर भड़काऊ बयान देने का मामला दर्ज हुआ। भारत में भी शरण न मिलने पर तस्लीमा चुपचाप यूरोप चली गई, और गुमनाम हो गई।

10 वर्ष के अज्ञातवास के बाद वो चुपचाप लौटी, और कोलकाता में रहने लगी। तस्लीमा ने अनेक बार कहा है, कि पश्चिम बंगाल उसे अपना दूसरा घर लगता है, इसीलिए वह कोलकाता में रहना चाहती हैं। तस्लीमा के शब्दों में " यहाँ की मिट्टी की खुशबू बंगलादेश जैसी है।" उनका ये सुकून भी अधिक समय तक नहीं रह सका। जैसे ही तस्लीमा के बंगाल में होने की बात बाहर आई, सड़कों पर उपद्रव शुरू हो गए। देश भर में कट्टरपंथियों द्वारा तस्लीमा पर प्रहार होने लगे, इतना ही नहीं स्थान-स्थान पर सेकुलरिजम के ठेकेदार अकेली महिला पर टूट पड़े।

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अगस्त 2007 को तस्लीमा हैदराबाद में अपनी पुस्तक " शोधके तमिल संस्करण का लोकार्पण करने गईं। कार्यक्रम के दौरान मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के तीन विधायकों अफसर खान, अहमद पाशा और मोज़म खान ने अपने समर्थकों के साथ तस्लीमा पर हमला कर दिया। इसी पार्टी के विधायक हैदराबाद के अकबरूद्दीन ओवैसी ने अपने कुख्यात जहरीले भाषण में उपरोक्त घटना का गर्व पूर्वक वर्णन किया है। राज्य सरकार ने खानापूर्ति की, भारत सरकार ने संरक्षण नहीं दिया, और भारत से चले जाने को कह दिया। हताश तस्लीमा दोबारा यूरोप लौट गईं।

वर्ष 2011 में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक ' परिवर्तन ' आया, पर 'सेकुलर ' राजनीति की चाल वैसी ही बनीं रही। वर्ष 1971 के बंगलादेश स्वतंत्रता संघर्ष के समय हजारों निर्दोष बंगालियों की हत्या और बलात्कार के आरोपी जमात-ए-इस्लामी के नेता देलवार हुसैन सैय्यदी को बंगलादेश के न्यायालय ने मौत की सजा सुनाई। बंगलादेश में हुए इस निर्णय के विरोध में कोलकाता में विशाल रैली हुई, हंगामा हुआ और कोलकाता को दो दिन तक बंधक बनाकर रखा गया। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर तस्लीमा जैसों के लिए आशा की कोई किरण नहीं थी।

वर्ष 2013 में तस्लीमा ने एक बंगला टीवी धारावाहिक ' दुसाहबास ' की पटकथा लिखी। दिसंबर 2013 में उसका प्रसारण होना था, परंतु तस्लीमा का नाम सामने आते ही कट्टरपंथी तलवारें खींचकर सामने आ गए, और उनके कंधे से कंधा मिलाकर ह्यसेकुलरह्ण नेता भी मैदान में कूद पड़े, जिसमें तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय नेता भी शामिल थे। बेचारी तस्लीमा कहती रही कि इस कहानी में मजहब का '' भी नहीं है, और ये कहानी एक हिंदू परिवार की पृष्ठभूमि पर आधारित है, परंतु चूंकि उस धारावाहिक की लेखिका तस्लीमा नसरीन थीं, इसलिए ममता बनर्जी ने इस 'सांप्रदायिक' धारावाहिक के प्रसारण पर अनिश्चितकालीन रोक लगा दी।

2014 के लोकसभा चुनावों में बहुत कुछ नया घटा। बंगलादेशी घुसपैठ का मुद्दा भी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आया। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार श्री नरेंद्र मोदी ने अपनी रैलियों में इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया और बंगलादेशी घुसपैठियों को भारत से बाहर निकालने की बात की। स्वाभाविक था कि यह बात ममता बनर्जी को नागवार गुजरनी थी। इसलिए वे हुंकारते हुए मैदान में आईं और बोली कि " हिम्मत है, तो एक भी बंगलादेशी को छूकर दिखाएं।"
 
ममता द्वारा बंगलादेशी के घुसपैठियों को संरक्षित करने वाला बयान देने के बाद भी इस पर कथित सेकुलर नेताओं से लेकर मीडिया तक में खामोशी छाई रही, पर तस्लीमा ने एक सवाल उठाकर सबका ध्यान समस्या के उद्गम की ओर खींच लिया।

तस्लीमा ने कहा " ममता जी तो अवैध रूप से आ रहे घुसपैठियों का भी स्वागत करती हैं, फिर मुझ से ये भेदभाव क्यों? क्या इसलिए कि मैं वैध तरीके से भारत  आई हूं ? "

तस्लीमा का ये सवाल सेकुलरिज्म की आड़ में कट्टरपंथ का पोषण करने वाली राजनीति पर गंभीर चिंतन का आह्वान है। तस्लीमा प्रश्नचिन्ह बन गई हैं, हमारी विडंबनाओं का। सवाल लोकतंत्र की रक्षा का है, और नारी के सम्मान की रक्षा का भी। सवाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी है, और उदार भारतीय मूल्यों की उपासना का भी है। सवाल यह भी है, कि घुसपैठिए और शरणार्थी में अंतर करना हम सीख पाए हैं क्या ?

 






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