Sunday, January 26, 2014

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दैनिक जागरण (25 जनवरी, 2014)

अल्पसंख्यकों पर मेहरबानी

जैन समुदाय को भी बाकायदा 'अल्पसंख्यक' दर्जा दे दिया गया है। कम से कम इसी बहाने हमारा ध्यान इस विचित्र तथ्य पर भी जाना चाहिए कि हमारे देश में 'बहुसंख्यक' का कहीं कानूनी, संवैधानिक उल्लेख नहीं है। इसीलिए यह अन्याय चल रहा है कि मानित, नामित अल्पसंख्यक को जो अधिकार और सुविधाएं मिलती हैं, वह बहुसंख्यक को नहीं मिलतीं। यह दुनिया में अभूतपूर्व स्थिति है कि किसी देश में अल्पसंख्यक को वह अधिकार हासिल हो, जो बहुसंख्यक को नहीं है। जिन पश्चिमी लोकतंत्रों से अल्पसंख्यक संरक्षण की धारणा हमने नकल कर ली, वहां उसका अर्थ है कि अल्पसंख्यक को किसी अधिकार से वंचित न रहना पड़े। यह अर्थ कतई नहीं है कि अल्पसंख्यक को ऐसे विशेषाधिकार दें, जो कथित बहुसंख्यक को न मिलें। मगर भारत में यही अंधेर हो गया है! उदाहरण के लिए, यहां कोई अल्पसंख्यक के रूप में अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है, पर बहुसंख्यक के रूप में नहीं, क्योंकि संविधान में बहुसंख्यक का उल्लेख ही नहीं है। यह खुला अन्याय है कि एक मुस्लिम या ईसाई, भारतीय नागरिक और अल्पसंख्यक, दोनों रूपों में न्यायालय जा सकता है; किंतु एक हिंदू केवल नागरिक के रूप में। इस घोर अन्याय को कब पहचाना जाएगा?1यह गड़बड़ी संविधान में ही हो गई कि अल्पसंख्यक की पूरी चर्चा में कहीं बहुसंख्यक का उल्लेख नहीं है। कानूनी दृष्टि से यह घोर अंधकार भरी जगह है। इसीलिए सारी लूटपाट होती है। कानून में कोई बात स्वत: स्पष्ट नहीं होती। वैसे भी, जब लिखित धाराओं पर अथरें के भारी मतभेद होते हैं, जो न्यायिक निर्णयों में दिखते हैं; तब किसी अलिखित बात पर अनुमान ही किया जा सकता है। यदि मजहब, नस्ल, जाति और भाषा ; अथवा केवल मजहब और भाषा के आधार पर भी अल्पसंख्यक की पहचान करें तो तुलना में बहुसंख्यक कौन है? यह कानून में लिखकर स्पष्ट करना जरूरी है। साथ ही, यह भी कि बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक भी जिला, प्रांत या देश, किस क्षेत्रधार पर चिह्नित हो? संविधान, किसी सरकारी दस्तावेज, सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय में बहुसंख्यक नामक शब्द कहीं नहीं मिलता है। अत: इसका न कोई नाम है, न पहचान। ध्यान दें, अनुपस्थित बहुसंख्यक से अल्पसंख्यक की धारणा ही असंभव हो जाती है! क्योंकि 'अल्प' और 'बहु' तुलनात्मक अवधारणाएं हैं। एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता। मगर भारतीय संवैधानिक, कानूनी-राजनीतिक तंत्र में यही चल रहा है। तब वही होगा, जो हो रहा है: खुली मनमानी और अन्याय। अन्याय की पहचान इससे भी स्पष्ट है कि अल्पसंख्यक का अर्थ प्राय: एक विशेष समुदाय मात्र कर लिया गया है। जबकि संविधान की धारा 29 में जाति वाले आधार पर ब्राह्मण भी अल्पसंख्यक हैं। बल्कि हरेक जाति, पूरे देश, हरेक राज्य और अधिकांश जिले में अल्पसंख्यक हैं। धारा 30 में 'भाषा' वाले आधार पर हर भाषा-भाषी एकाध राज्य छोड़कर पूरे देश में अल्पसंख्यक हैं। तीन-चौथाई राज्यों में हिंदी-भाषी भी अल्पसंख्यक हैं। इन अल्पसंख्यकों के लिए कब, क्या होता है? यदि नहीं होता, तो क्यों? 1इसका उत्तार है कि अल्पसंख्यक की धारणा अस्पष्ट, अपरिभाषित है, जबकि बहुसंख्यक को कहीं नोट ही नहीं किया गया। इसी से मनमाने निर्णय होते हैं। हमारे विधान और संविधान में बहुसंख्यक के बिना ही अल्पसंख्यक अधिकार चल रहा है। अल्पसंख्यकों में भी केवल मजहबी अल्पसंख्यक, उनमें भी केवल एक चुने हुए अल्पसंख्यक को नित नई सुविधाएं और विशेषाधिकार, जो वास्तव में सबसे ताकतवर है! यह बात वह स्वयं जानता है जिस कारण उसके प्रतिनिधियों की भाषा दबंगई की होती है, किसी दबे-कुचले, उपेक्षित अल्पसंख्यक की नहीं, जो पश्चिमी समाजों की अल्पसंख्यक संरक्षण वाली चिंता का मूल था। इसीलिए उस विजातीय धारणा की मतिहीन नकल से यहां अल्पसंख्यक प्रावधान उलटे अतंर्विरोध के चलते अन्याय और देश-विभाजक राजनीति का हथकंडा बन कर रह गया है। यह हथकंडा ही है, यह इससे दिखेगा कि अल्पसंख्यक के मनमाने अर्थ को गलत बताने अथवा उसकी एकाधिकारी सुविधाओं को खारिज करने वाले सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को उपेक्षित कर दिया जाता है जैसे, मजहबी आधार पर आरक्षण। सुप्रीम कोर्ट ने बाल पाटिल तथा अन्य बनाम भारत सरकार मामले में निर्णय दिया था, 'हिंदू शब्द से भारत में रहने वाले विभिन्न प्रकार के समुदायों का बोध होता है। यदि आप हिंदू कहलाने वाला कोई व्यक्ति ढूंढना चाहें तो वह नहीं मिलेगा। वह केवल किसी जाति के आधार पर ही पहचाना जा सकता है। जातियों पर आधारित होने के कारण हिंदू समाज स्वयं अनेक अल्पसंख्यक समूहों में विभक्त हैं। प्रत्येक जाति दूसरे से अलग होने का दावा करती है। जाति-विभक्त भारतीय समाज में लोगों का कोई हिस्सा या समूह बहुसंख्यक होने का दावा नहीं कर सकता। हिंदुओं में सभी अल्पसंख्यक हैं। 1इससे क्या अनिष्ट हो सकता है, यह भी सुप्रीम कोर्ट के उसी निर्णय में है। न्यायाधीशों ने देश-विभाजन का उल्लेख करते हुए लिखा है कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक आधार पर किसी को अल्पसंख्यक मानने और अलग निर्वाचक-मंडल बनाने आदि कदमों से ही अंतत: देश के टुकड़े हुए। इसीलिए न्यायाधीशों ने चेतावनी भी दी, 'यदि मात्र भिन्न धार्मिक विश्वास या कम संख्या या कम मजबूती, धन, शिक्षा, शक्ति या सामाजिक अधिकारों के आधार पर भारतीय समाज के किसी समूह के अल्पसंख्यक होने का दावा स्वीकार किया जाता है, तो भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहु-भाषायी समाज में इसका कोई अंत नहीं रहेगा।' न्यायाधीशों ने 'धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने की भावना को प्रोत्साहित करने' के प्रति विशेष चिंता जताई, जो देश में विभाजनकारी प्रवृत्तिबढ़ा सकती है। हमारे नेतागण और मतवादी बुद्धिजीवी ठीक उलटा करते जा रहे हैं। यह तभी रुकेगा, जब संविधान में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों स्पष्ट परिभाषित हो। दोनों के अधिकार किसी विशेषाधिकार नहीं, बल्कि समानता के सिद्धांत पर स्पष्ट किए जाएं। यही हमारे संविधान निर्माताओं की भावना थी।

[लेखक एस. शंकर वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

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