Saturday, November 30, 2013

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Friday, November 29, 2013

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Monday, November 18, 2013

Vidya bharati Wankaner

: संविधान का अल्पसंख्यक प्रावधान


 

संविधान का अल्पसंख्यक प्रावधान

न्यायाधीशों ने चेतावनी भी दी, 'अगर मात्र भिन्न धार्मिक विश्वास या कम संख्या या कम मजबूती, धन-शिक्षा-शक्ति या सामाजिक अधिकारों के आधार पर भारतीय समाज के किसी समूह के 'अल्पसंख्यक' होने का दावा स्वीकार किया जाता है, तो भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहु-भाषाई समाज में इसका कोई अंत नहीं रहेगा।'
शंकर शरण

जनसत्ता 27 जून, 2013: महत्त्वपूर्ण शासकीय जिम्मेदारी उठाए हुए एक वरिष्ठ केंद्रीय नेता का ताजातरीन बयान गंभीरता से विचार करने योग्य है। उसमें तीन बातें ध्यान आकर्षित करती हैं। पहली, 'अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण का उप-कोटा बनाया गया, लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट ने स्थगित कर दिया। इसलिए अकादमिक संस्थानों में अल्पसंख्यकों के लिए नौकरी और पद सुरक्षित करने की कोई नीति नहीं है।' दूसरी, 'हम आशान्वित हैं कि उप-कोटा लागू हो जाएगा। हम अटॉर्नी जनरल से बात कर रहे हैं ताकि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और पहले करा ली जाए और मामला सुलझा लिया जाए। लेकिन इस बीच हमें अल्पसंख्यकों की मदद करनी होगी।' उस मदद का विवरण देते हुए उन्होंने कहा, 'चौवालीस पॉलिटेक्निक और एक सौ तेरह आइटीआइ अल्पसंख्यक केंद्रित इलाकों में खोले जा रहे हैं।' इतना ही नहीं, उन वरिष्ठ केंद्रीय नेता के अनुसार कार्मिक विभाग को निर्देश दिया गया है कि वह सरकारी क्षेत्र के सभी सेलेक्शन बोर्डों और चयन समितियों में अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दे। 
उनके आत्मविश्वास और कामकाजी अंदाज से स्पष्ट है कि अल्पसंख्यक आरक्षण लागू होना तय है। केवल समय की बात है। वह भी जल्दी करने का इंतजाम हो रहा है। फिर भी जितनी देर हो, उस बीच अंतरिम लाभ के तौर पर एक सौ सत्तावन तकनीकी संस्थान 'अल्पसंख्यकों' के हित में खोले जा रहे हैं।

इतना ही नहीं, आमतौर पर सभी अकादमिक चयन समितियों में अल्पसंख्यक प्रतिनिधियों को स्थान देने का सीधा अर्थ है कि अब सरकारी अकादमिक आदि पदों पर चयन का आधार यह भी होगा कि उम्मीदवार अल्पसंख्यक हो! नहीं तो, चयन समिति में ही 'अल्पसंख्यक' को लाने की चिंता का कोई अर्थ नहीं।  
ये सब दूरगामी निर्णय किस सिद्धांत के आधार पर हो रहे हैं? क्या यह सब उचित है, न्यायपूर्ण है, देश-समाज के हित में है? इतना ही नहीं, क्या यह संविधान के भी अनुरूप है? ये प्रश्न बहुतों को अटपटे भी लग सकते हैं। क्योंकि 'अल्पसंख्यकों' के लिए यह और वह करने के अभियान इतने नियमित हो गए हैं कि उसे सहज और सामान्य तक समझा जाने लगा है।
पर सचाई यह है कि न केवल यह अभियान देश के लिए अत्यंत खतरनाक और विघटनकारी है, बल्कि संविधान के भी अनुरूप नहीं है। चूंकि राजनीतिक दलों और प्रभावी बुद्धिजीवी वर्ग ने संकीर्ण लोभ और वैचारिक झक में इसे सही मान लिया है, इससे इसका अन्याय, असंवैधानिकता और संभावित भयावह दुष्परिणाम छिपाया नहीं जा सकता।
अन्याय और असंवैधानिकता की पहचान इसी से आरंभ हो सकती है कि 'अल्पसंख्यक' का अर्थ बदल कर एक विशेष समुदाय मात्र कर लिया गया है। यह विचित्र सचाई सभी जानते हैं। लेकिन क्या भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक का यही अर्थ है?
दूसरी बात, जो उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि हर कहीं अल्पसंख्यक को लाने और भरने के निर्णयों में समानता के उस संवैधानिक प्रावधान को घूरे में फेंक दिया गया है कि राज्य किसी आधार पर नागरिकों में भेदभाव नहीं करेगा। अल्पसंख्यक संबंधी सभी घोषणाएं और निर्णय खुले भेदभाव के आधार पर हो रहे हैं।
फलां व्यक्ति अल्पसंख्यक समुदाय का है, इसलिए किसी महत्त्वपूर्ण चयन समिति में लिया जाएगा- यह संविधान की किस धारा के अनुरूप है?
अल्पसंख्यक संबंधी संविधान की धाराओं में दूर-दूर तक इस तरह का कोई अर्थ नहीं निकलता। कृपया संविधान की वे धाराएं, 29 और 30, स्वयं पढ़ कर देखें। इसलिए अल्पसंख्यकों के लिए निरंतर बढ़ते, उग्रतर होते कार्यक्रम में जो कुछ किया जा रहा है उनमें अधिकतर पूरी तरह अवैधानिक हैं।
 
यह ऐसी डाकेजनी है, जो इतने खुले रूप में हो रही है कि डाकेजनी नहीं लगती! शरलक होम्स के मुहावरे में कहें तो 'इट इज सो ओवर्ट, इट इज कोवर्ट'
हां, यह भी सच है कि अल्पसंख्यक के नाम पर इतनी मनमानियां इसलिए भी चल रही हैं क्योंकि संविधान ने इनकी पहचान करने में गड़बड़झाला कर दिया है। मूल गड़बड़ी उसी से शुरू हुई, मगर उसने अब जो रूप ले लिया है वह संविधान से भी अनुमोदित नहीं है।
बहरहाल, उन संवैधानिक धाराओं में गड़बड़ी यह है कि धारा 29 अल्पसंख्यक के संदर्भ में मजहब, नस्ल, जाति और भाषा, ये चार आधार देती है। जबकि धारा 30 में केवल मजहब और भाषा का उल्लेख है। तब अल्पसंख्यक की पहचान किन आधारों पर गिनी या छोड़ी जाएगी? यह अनुत्तरित है।
संविधान में दूसरी बड़ी गड़बड़ी यह है कि अल्पसंख्यक की पूरी चर्चा में कहीं 'बहुसंख्यक' का उल्लेख नहीं है। कानूनी दृष्टि से यह निपट अंधकार भरी जगह है, जहां सारी लूटपाट हो रही है। क्योंकि कानून में कोई चीज स्वत: स्पष्ट नहीं होती।
जब लिखित कानूनी धाराओं पर अर्थ के भारी मतभेद होते हैं, जो न्यायिक बहसों, निर्णयों में दिखते हैं; तब किसी लुप्त, अलिखित धारणा पर अनुमान किया जा सकता है। इसीलिए 'बहुसंख्यक' के रूप में हमारे बुद्धिजीवी जो भी मानते हैं, वह संविधान में कहीं नहीं। इसी से भयंकर गड़बड़ियां चल रही हैं। संविधान में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों अपरिभाषित हैं, लेकिन व्यवहार में स्वार्थी नेतागण दोनों को जब जैसे

मनमाना नाम और अर्थ देकर किसी को कुछ विशेष दे और किसी से कुछ छीने ले रहे हैं।

यह सब इसलिए भी हो रहा है, क्योंकि अल्पसंख्यक संदर्भ में बुनियादी प्रश्न पूरी तरह, और आरंभ से ही अनुत्तरित हैं। जैसे, बहुसंख्यक कौन है? अगर मजहब, नस्ल, जाति और भाषा (धारा 29); या केवल मजहब और भाषा (धारा 30) के आधार पर भी अल्पसंख्यक की अवधारणा की जाए, तो इसकी तुलना में बहुसंख्यक किसे कहा जाएगा? फिर, यह बहुसंख्यक और तदनुरूप अल्पसंख्यक भी जिला, प्रांत या देश, किस क्षेत्राधार पर चिह्नित होगा?

इन बिंदुओं को प्राय: छुआ भी नहीं जाता। ऐसी भंगिमा बनाई जाती है मानो यह सब सबको स्पष्ट हो। जबकि ऐसा कुछ नहीं है।

न संविधान, न किसी सरकारी दस्तावेज, न सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय- कोई 'बहुसंख्यक' नामक चिड़िया कहीं दिखाई नहीं देती। न इसका कोई नाम है, पहचान। दूसरे शब्दों में, बिना किसी बहुसंख्यक के ही अल्पसंख्यक का सारा खेल चल रहा है!

 
कुछ ऐसा ही जैसे ताश के खेल में एक ही खिलाड़ी दोनों ओर से खेल रहा हो। या किसी सिक्के में एक ही पहलू हो। दूसरा पहलू सपाट, खाली हो। उसी तरह भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक तो है, बहुसंख्यक है ही नहीं!

लेकिन जब बहुसंख्यक कहीं परिभाषित नहीं, तो अल्पसंख्यक की धारणा ही असंभव है! क्योंकि 'अल्प' और 'बहु' तुलनात्मक अवधारणाएं हैं। एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता। मगर भारतीय संविधान में यही हो गया है।

तब वही परिणाम होगा, जो हो रहा है- यानी निपट मनमानी और अन्याय। उदाहरण के लिए, संविधान की धारा 29 में 'जाति' वाले आधार पर ब्राह्मण भी अल्पसंख्यक हैं। बल्कि हरेक जाति, पूरे देश, हरेक राज्य और अधिकतर जिलों में अल्पसंख्यक हैं। धारा 30 में 'भाषा' वाले आधार पर हर भाषा-भाषी एकाध राज्य छोड़ कर पूरे देश में अल्पसंख्यक हैं। तीन चौथाई राज्यों में हिंदी-भाषी भी अल्पसंख्यक हैं। इन अल्पसंख्यकों के लिए कब, क्या किया गया? अगर नहीं किया गया, तो क्यों?
इसका उत्तर है कि जान-बूझ कर अल्पसंख्यक को अस्पष्ट, अपरिभाषित रखा जा रहा है, ताकि मनचाहे निर्णय लिए जा सकें। जबकि बहुसंख्यक का तो कहीं उल्लेख ही नहीं! इसलिए न उसके कोई अधिकार हैं, न उसके साथ कोई अन्याय। क्योंकि संविधान या कानून में उसका अस्तित्व ही नहीं!
इस प्रकार, देश की राजनीति और विधान में बहुसंख्यक के बिना ही अल्पसंख्यक अधिकार चल रहा है।
 
अल्पसंख्यकों में भी केवल मजहबी अल्पसंख्यक, उनमें भी केवल एक चुने हुए अल्पसंख्यक को नित नई सुविधाएं और विशेषाधिकर दिए जा रहे हैं। वह अल्पसंख्यक, जो वास्तव में सबसे ताकतवर है!

जिससे देश के प्रशासनिक अधिकारी ही नहीं, मीडिया और न्यायकर्मी भी सावधान रहते हैं। यह कटु सत्य सब जानते हैं। पर तब भी वास्तविक दबे-कुचले, उपेक्षित, निर्बल वर्गों की खोज-खबर नहीं ली जाती। संविधान में वर्णित 'अल्पसंख्यक' प्रावधान अपने अंतर्विरोध और अस्पष्टता के चलते घटिया और देश-विभाजक राजनीति का हथकंडा बन कर रह गया है।     
यह हथकंडा ही है, यह इससे प्रमाणित होगा कि मनमाने अर्थ वाले 'अल्पसंख्यक' को गलत बताने, या उसकी एकाधिकारी सुविधाओं को खारिज करने वाले सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को सरसरी तौर पर उपेक्षित कर दिया जाता है। अर्थात वोट बैंक के लालच में नेतागण जो करना तय कर चुके हैं, उसके अनुरूप ही वे न्यायालय की बात मानते हैं, नहीं तो साफ ठुकराते हैं।
मसलन, सुप्रीम कोर्ट ने 'बाल पाटील और अन्य बनाम भारत सरकार' (2005) मामले में निर्णय लिखा था, 'हिंदू शब्द से भारत में रहने वाले विभिन्न प्रकार के समुदायों का बोध होता है। अगर आप हिंदू कहलाने वाला कोई व्यक्ति ढूंढ़ना चाहें तो वह नहीं मिलेगा। वह केवल किसी जाति के आधार पर पहचाना जा सकता है। ...जातियों पर आधारित होने के कारण हिंदू समाज स्वयं अनेक अल्पसंख्यक समूहों में विभक्त है। प्रत्येक जाति दूसरे से अलग होने का दावा करती है।
जाति-विभक्त भारतीय समाज में लोगों का कोई हिस्सा या समूह बहुसंख्यक होने का दावा नहीं कर सकता। हिंदुओं में सभी अल्पसंख्यक हैं।' क्या अल्पसंख्यक की किसी चर्चा में इस निर्णय और सम्मति का कोई संज्ञान लिया जाता है? अगर नहीं, तो क्यों?
इस संदर्भ में दिनोंदिन बिगड़ती जा रही स्थिति से क्या अनिष्ट संभावित है, यह भी सुप्रीम कोर्ट के उसी निर्णय में है। न्यायाधीशों ने 1947 में देश-विभाजन का उल्लेख करते हुए वहीं पर लिखा है कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक आधार पर किसी को अल्पसंख्यक मानने और अलग निर्वाचक-मंडल बनाने आदि कदमों से ही अंतत: देश के टुकड़े हुए।
इसीलिए न्यायाधीशों ने चेतावनी भी दी, 'अगर मात्र भिन्न धार्मिक विश्वास या कम संख्या या कम मजबूती, धन-शिक्षा-शक्ति या सामाजिक अधिकारों के आधार पर भारतीय समाज के किसी समूह के 'अल्पसंख्यक' होने का दावा स्वीकार किया जाता है, तो भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहु-भाषाई समाज में इसका कोई अंत नहीं रहेगा।'
न्यायाधीशों ने 'धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने की भावना को प्रोत्साहित करने' के प्रति विशेष चिंता जताई, जो देश में विभाजनकारी प्रवृत्ति बढ़ा सकती है। क्या हमारे अधिकतर नेता और बुद्धिजीवी पूरे उत्साह से वही नहीं कर रहे हैं?
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: Sardar Patel aur Sangh


सरदार पटेल और संघ


सरदार
पटेल की महानता ऐसी है की, संपूर्ण देश उन्हें अपना माने। जो लोग उन्हें किसी एक सियासी पाटीं के बाडे में बंदिस्त करके रखना चाहते है, वे उनका अपमान करते है। इस लेख में सरदार पटेल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संबंधों के बारे में विचार प्रस्तुत है। 

संघ की क़दर
मुझे निश्चयपूर्वक कहना है कि, सरदार पटेल को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके कार्य की क़दर थी। जिस समय काँग्रेस के कुछ नेता और विशेषतः तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु, जब संघ को नेस्तनाबूत करने का विचार कर रहे थे, उस समय सरदार पटेल संघ की प्रशंसा कर रहे थे। तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार में एक संसदीय सचिव श्री गोविंद सहाय ने एक पुस्तिका प्रकाशित कर, संघ फासिस्ट है और उसपर बंदी लगाए ऐसी मांग की थी। 29 जनवरी 1948 को, पंजाब प्रान्त में दिये अपने एक भाषण में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने संघ की तीखी आलोचना करते हुए, उसे हम जडमूल से उखाड फेकेंगे ऐसी गर्जना की थी। लेकिन सरदार पटेल उस समय भी संघ की वाहवा कर रहे थे। 1947 के दिसंबर माह में जयपुर और1948 के जनवरी में लखनऊ में किये भाषण में सरदार पटेल ने संघ के लोग देशभक्त हैं, ऐसा सार्वजनिक रूप में कहा था। संघ पर बंदी लगाने की मांग करनेवालों को लक्ष्य कर उन्होंने कहा था कि, दंडात्मक कानून की कारवाई गुंडों के विरुद्ध की जाती है, देशभक्तों के विरुद्ध नहीं; संघ के स्वयंसेवक देशभक्त है। 

अप्रस्तुत सवाल
उसी दरम्यान, मतलब 30 जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या की गई थी। हत्या करने वाला व्यक्ति हिंदुत्वनिष्ठ था। इस कारण, हिंदुत्ववादी संघ भी संदेह के घेरे में आया। 4 फरवरी को सरकार ने संघ पर पाबंदी लगाई। पाबंदी गृह विभाग की ओर से लगाई जाती है और उस समय गृह विभाग के मंत्री थे सरदार पटेल। इस कारण, सरदार पटेल ने पाबंदी लगाई थी, फिर यह पाबंदी लगानेवाले सरदार पटेल संघ के प्रशंसक कैसे हो सकते है और संघवाले सरदार को अपना कैसे मान सकते है, ऐसे प्रश्न, गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार श्री नरेन्द्र मोदी ने सरदार पटेल का विशाल पुतला बनाने का निश्चय करने के बाद काँग्रेस के कुछ नेताओं की ओर से उपस्थित किये गए। यह प्रश्न अप्रस्तुत है, ऐसा मुझे कहना है। 

संदेह के बादल
गांधीजी की हत्या होने के बाद, उस साज़िश में संघ भी शामिल है, इस संदेह से उस समय का वातावरण इतना कलुषित हुआ था कि, उस समय के सरसंघचालक श्री गुरुजी को 2 फरवरी की मध्यरात्रि में गिरफ्तार किया गया, यह गिरफ्तारी फौजदारी कानून की धारा 302 के अंतर्गत थी। मानो गुरुजी स्वयं पिस्तौल लेकर दिल्ली गये थे और उन्होंने गांधीजी पर गोलियाँ दागी थी!  यह नीरी बेवकूफी जल्द ही सरकार के ध्यान में आई और उसने वह धारा हटाकर गुरुजी की गिरफ्तारी प्रतिबंधक कानून के अंतर्गत की जाने की बात कही। उस समय, संघ के अनेक अधिकारियों को भी प्रतिबंधक कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर कारागृह में ठूँसा गया था। संघ के करीब बीस हजार कार्यकर्ताओं के घरों की भी तलाशी ली गई। लेकिन गांधीजी की हत्या की साजिश में संघ के सहभागी होने का रत्तिभर भी प्रमाण नहीं मिला। इस वस्तुस्थिति की दखल सरदार पटेल ने निश्चित ही ली होगी।

 
पटेल
पर अविश्वास
सरदार पटेल का संघ के बारे में जो मत था वह पंडित नेहरु और उनके वामपंथी विचारधारा के अनुयायी जानते थे। गृहमंत्री सरदार पटेल, गांधी-हत्या के मामले की सही जाँच नहीं करेंगे, ऐसा भाव उनके मन में था। पंडित नेहरु ने सरदार पटेल को लिखे एक पत्र में वह व्यक्त भी हुआ है। पंडित नेहरु का यह पत्र 26 फरवरी 1948 मतलब संघ पर जिस माह बंदी लगाई गई, उसी माह का है। उस पत्र में के मुख्य मुद्दे इस प्रकार है :
1) गांधीजी
की हत्या की व्यापक साज़िश की खोज करने में कुछ ढिलाई दिखाई दे रही है।
2) गांधीजी की हत्या यह एकाकी घटना नहीं। वह आरएसएस के व्यापक अभियान का एक हिस्सा है। 
3) संघ
के अनेक कार्यकर्ता अभी भी बाहर हैं। कुछ विदेशों में गये है, या भूमिगत है या खुलेआम बाहर घूम रहे है। उनमें से कुछ हमारे कार्यालय तथा पुलिस में भी है। इस कारण, कोई भी बात उनसे गुप्त रखना असंभव है। 
4) मुझे
ऐसा लगता है कि, पुलिस और अन्य स्थानीय अधिकारियों ने कडाई से काम करना चाहिए। उन्हें थोड़ी फुर्ती दिखाकर ढिला पडने की आदत है। सबसे अधिक खतरनाक बात यह है कि, उनमें से अनेकों को संघ के बारे में सहनुभूति है। इस कारण, ऐसी धारणा बन गई है कि, सरकार की ओर से कोई परिणामकारक कारवाई नहीं की जाती। 
यह
सरदार पटेल पर, अप्रत्यक्ष रूप में, अविश्वास प्रकट करने का ही प्रयास था।

पटेल का उत्तर
सरदार पटेल ने, तुरंत दूसरे दिन ही मतलब 27 फरवरी को विस्तृत उत्तर भेजा। उस प्रदीर्घ पत्र के मुख्य मुद्दे इस प्रकार हैं :
1) गांधीजी
के हत्या के मामले की जाँच के संदर्भ में मैं प्रतिदिन जाँच के प्रगति का जायजा लेता हूँ। 
2) जिन
आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है, उनके निवेदन से यह स्पष्ट हुआ है कि, इस साज़िश के केन्द्र पुणे, मुंबई, अहमदनगर और ग्वालियर थे। उसका केन्द्र दिल्ली नहीं था। ...... उन निवेदनों से यह भी स्पष्ट हुआ है कि इस साज़िश में संघ का हाथ नहीं था।
3) दिल्ली
के संघ के बारे में कहें तो उनके वहाँ के प्रमुख कार्यकर्ताओं में से किसी के भी छूटने की जानकारी मुझे नहीं है।
4) मुझे
पूरा भरोसा है कि, दिल्ली के सब प्रमुख संघ कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया है। 
5) दूसरे
किसी भी स्थान या प्रान्त की तुलना में दिल्ली में गिरफ्तारी की संख्या अधिक है। 

संघ की प्रशंसा
प्रतिबंधात्मक गिरफ्तारी में : माह बीतने के बाद 6 अगस्त 1948 को श्री गुरुजी कारागृह से मुक्त हुए। उसके बाद उन्होंने 11 अगस्त को सरदार पटेल को पत्र लिखकर, दिल्ली आकर उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। श्री गुरुजी को पंडित नेहरु से भी मिलना था और उन्होंने उन्हें पत्र भी लिखा था। लेकिन पंडित नेहरु ने मिलने से इंकार किया। कारागृह से मुक्त होने के बाद भी, श्री गुरुजी को नागपुर से बाहर जाने की पाबंदी थी। वह पाबंदी इस पत्र के बाद हटाई गई और वे दिल्ली गये।
श्री
गुरुजी ने 11 अगस्त को लिखे पत्र को सरदार पटेल ने 11 सितंबर को उत्तर भेजा। उस उत्तर में सरदार पटेल लिखते है :
1) संघ
के बारे में मेरे विचारों की आपको जानकारी होगी ही। मेरे यह विचार मैंने गत दिसंबर में जयपुर और जनवरी में लखनऊ में किए भाषण में प्रकट किये थे। लोगों ने इन विचारों का स्वागत किया था। 
2) हिंदू
समाज की संघ ने सेवा की है, इस बारे में कोई संदेह नहीं। जहाँ सहायता और संगठन की आवश्यकता थी, वहाँ संघ के युवकों ने महिलाओं और बच्चों की रक्षा की और उनके लिए बहुत परिश्रम भी किये।
3) मैं
पुन: आपको बताता हूँ कि, आप मेरे जयपुर और लखनऊ के भाषणों का विचार करें और उन भाषणों में मैंने संघ को जो मार्ग दिखाया है उसका स्वीकार करें। मुझे विश्वास है की, इसमें ही संघ और देश का भी हित है। आपने यह मार्ग स्वीकार किया तो हमारे देश के कल्याण के लिये हम हाथ मिला सकते हैं। 
4) मुझे
पूरा विश्वास है कि, संघ अपना देशभक्ति का कार्य काँग्रेस में आकर ही कर सकेगा। अलग रहकर या विरोध करके नहीं।
26 नवंबर
1948 को श्री गुरुजी को लिखे दूसरे पत्र में भी श्री पटेल यहीं भावना व्यक्त करते हैं। वे लिखते हैं, ''सब बातों का विचार करने के बाद मेरी आपके लिए एक ही सूचना है, वह यह  कि, संघ ने नया तंत्र और नई नीति अपनानी चाहिए। यह नया तंत्र और नीति काँग्रेस के नियमानुसार ही होनी चाहिए।''

संघ का सत्याग्रह
यह ध्यान में रखना चाहिये  कि, श्री पटेल के यह विचार संघ पर पाबंदी रहने के समय के हैं। श्री गुरुजी ने दिल्ली जाकर सरदार पटेल से भेंट की। संघ की भूमिका विशद की। लेकिन पाबंदी कायम ही रही। इतना ही नहीं तो श्री गुरुजी दिल्ली छोडकर नागपुर लौट जाय, ऐसा हुक्म ही जारी किया गया। लेकिन न्याय मिलने तक दिल्ली छोडने का निर्धार श्री गुरुजी ने प्रकट किया। तब 1818 के काले कानून के अंतर्गत उन्हें गिरफ्तार कर नागपुर भेजा गया और सिवनी के कारागृह में रखा गया। 

अपने
ऊपर हो रहा अन्याय दूर करने के लिए दूसरा कोई भी मार्ग शेष रहने के कारण, बंदी उठाने के लिये 9 दिसंबर 1948 से संघ ने सत्याग्रह आरंभ किया। आरंभ में इस सत्याग्रह की हँसी उडाई गई। 'हिंसा पर विश्वास रखनेवाले' शांतिपूर्ण सत्याग्रह कर ही नहीं सकेंगे ऐसी उनकी कल्पना थी। और, एक-दो हजार लड़के ही इसमें भाग लेंगे, ऐसा भी उनका अनुमान था। लेकिन सत्याग्रह पूरी तरह से शांततापूर्ण हुआ। कुछ स्थानों पर पुलिस ने अत्याचार किये, लेकिन स्वयंसेवकों की शांति भंग नहीं हुई और सत्याग्रह में 70 हजार से अधिक स्वयंसेवकों ने गिरफ्तारी दी। 

विचारवंतों
की मध्यस्थता 
इस सत्याग्रह ने समाज के विचारवंतों को आकृष्ट किया और उन्होंने मध्यस्थता के लिए पहल की। प्रथम 'केसरी' के तत्कालीन संपादक श्री ग. वि. केतकर सामने आये। वे सरकार के प्रतिनिधियों से मिले; कारागृह में श्री गुरुजी से मिले और उन्होंने गुरुजी को बताया कि, जब तक सत्याग्रह समाप्त नहीं किया जाता, तब तक सरकार के साथ चर्चा नहीं हो सकती। श्री केतकर की सूचना के अनुसार 22 या 23 जनवरी 1949 को सत्याग्रह रोका गया। लेकिन पाबंदी कायम ही रही। फिर पुराने मद्रास क्षेत्र में एडव्होकेट जनरल इस महत्त्व के पद पर कार्य कर चुके श्री टी. आर. व्यंकटराम शास्त्री आगे आये। वे भी सरकारी अधिकारियों से मिले; फिर गुरुजी से भी मिले। उन्होंने श्री गुरुजी को बताया कि, ''संघ अपना संविधान लिखित स्वरूप में दें, ऐसी सरकार की मांग है। उसके बाद ही पाबंदी हटाने का विचार होगा।'' श्री गुरुजी ने प्रतिप्रश्न किया कि, ''हमारे पास लिखित संविधान नहीं है, क्या इसलिए हमपर पाबंदी लगाई गई थी?'' फिर भी, व्यंकटराम शास्त्री जैसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ व्यक्ति का सम्मान रखने के लिए संघ ने लिखित स्वरूप में अपना संविधान सरकार के पास भेजा। उसके बाद सरकार ने तुरंत पाबंदी हटानी चाहिए थी। लेकिन सरकार को लगा  कि, गुरुजी दबाव में रहे है, उन्हें और झुकाना चाहिए, इसलिए सरकार ने उस संविधान में कमियों के बहाने खोजना शुरू किया। पाबंदी कायम ही रही। श्री व्यंकटराम शास्त्री भी नाराज हुए और अपनी मध्यस्थता असफल होने की, लेकिन संघ पर पाबंदी हटाने की आवश्यकता है ऐसी  सूचना देनेवाला पत्रक उन्होंने निकाला। श्री गुरुजी और सरकार को सूचित किया  कि इसके बाद वे सरकार से कोई पत्रव्यवहार नहीं करेंगे। अब सरकार फँस गई। वह पाबंदी कायम नहीं रख सकती थी। जनमत भी उस पाबंदी के विरोध में हो गया था। फिर सरकार ने श्री मौलिचन्द्र शर्मा के रूप में एक मध्यस्थ चुना। यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए  कि, श्री केतकर और श्री शास्त्री स्वयंप्रेरणा से मध्यस्थता के लिए सामने आये थे। पंडित मौलिचन्द्र शर्मा का चुनाव सरकार ने किया था। 

पंडित
मौलिचन्द्र शर्मा
पंडित
मौलिचन्द्र ने पहले, कारागृह के बाहर के संघ के अधिकारियों से भेंट की। उन्होंने श्री शर्मा को स्पष्ट बताया कि, श्री गुरुजी सरकार को कुछ लिखकर नहीं देंगे। शर्माजी खाली हाथ दिल्ली लौटे। लेकिन तुरंत दूसरे दिन वापस आये। श्री गुरुजी सरकार को कुछ भी लिखकर दे, लेकिन मौलिचन्द्र शर्मा कुछ प्रश्न पूछेंगे, उनका उत्तर, पत्र के रूप में गुरूजी लिखकर दें, ऐसा हल लेकर वे आये। और उन्होंने सिवनी के कारागृह में श्री गुरुजी से भेंट की। श्री गुरुजी ने, श्री मौलिचन्द्र शर्मा के नाम पत्र लिखकर अनेक मुद्दों पर संघ की भूमिका स्पष्ट की। पत्र 'माय डिअर पंडित मौलिचन्द्र जी' इस उद्बोधन से आरंभ होता है। इस पत्र में वहीं स्पष्टीकरण है, जो श्री गुरुजी ने दिल्ली में 2 नवंबर 1948 की पत्रपरिषद में दिया था। लेकिन तब सरकार का समाधान नहीं हुआ था। पर आश्चर्य यह  कि अब पंडित मौलिचन्द्र शर्मा को लिखे पत्र से सरकार का समाधान हुआ। वह पत्र 10 जुलाई को सिवनी के कारागृह में लिखा गया है और 12 जुलाई 1949 को संघ पर की पाबंदी हटाई गई। एक संजोग यह भी था की, जिस दिन की सुबह के समाचारपत्रों में श्री व्यंकटराम शास्त्री की मध्यस्थता असफल होने का पत्रक प्रकाशित हुआ था, उसी दिन सायंकाल आकाशवाणी से सरकार ने संघ पर की पाबंदी हटाने की घोषणा हुई।

वर्किंग
कमेटी का प्रस्ताव
उपरोक्त
विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि काँग्रेस में एक प्रभावशाली समूह को संघ काँग्रेस के साथ सहयोग करें ऐसा लगता था। उसमें सरदार वल्लभभाई पटेल, पुरुषोत्तमदास टंडन, डॉ. राजेन्द्रप्रसाद का समावेश था। इस कारण ही, संघ पर की पाबंदी हटाने के कुछ समय बाद ही काँग्रेस वर्किंग कमेटी ने एक प्रस्ताव पारित कर, संघ के स्वयंसेवक काँग्रेस में प्रवेश कर सकते हैं, ऐसा घोषित किया। जिस समय वर्किंग कमेटी ने यह प्रस्ताव पारित किया, तब पंडित नेहरु कॉमनवेल्थ कॉन्फरन्स के लिए लंदन गये थे। इस प्रस्ताव से, वे स्वयं और उनके समर्थक चकित और हतबुद्ध हुए। पंडित नेहरु ने स्वदेश लौटते ही, वह प्रस्ताव पीछे लेने के लिये वर्किंग कमेटी को बाध्य किया। वह प्रस्ताव कायम होता, तो संघ में जिन लोगों का राजनीति की ओर झुकाव था, वे काँग्रेस में प्रवेश करते। वैसा होता, तो शायद भारतीय जनसंघ की स्थापना नहीं होती और काँग्रेस के बडबोले महासचिव दिग्विजय सिंह कहते है, वैसे भाजपा भी निर्माण नहीं होती। लेकिन यह निश्चित है  कि, संघ चलता ही रहता। कारण, किसी सियासी पार्टी में विलीन होने के लिये वह निर्माण ही नहीं हुआ था। संघ का उद्दिष्ट बहुत व्यापक है, संपूर्ण समाजजीवन को अपनी परिधि में लेनेवाला है। वह दिग्विजय सिंह जैसे हल्की सोच रखनेवाले, बेताल और बडबोले लोगों की आकलनशक्ति से परे है। 

सरदार
पटेल की मुंबई में निकली अंतिम यात्रा में उपस्थित रहने की श्री गुरुजी की इच्छा थी और तत्कालीन मध्य प्रान्त वर्हाड के मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल श्री गुरुजी को हवाई जहाज में अपने साथ ले गये थे, यह घटना भी यहाँ ध्यान में लेनी चाहिए। 

- मा.
गो. वैद्य
नागपुर, दि. 08 - 11 -2013
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