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संघ और गांधीजी
संघ और गांधीजी
एक दैनिक के सम्पादक ने, जो संघ के स्वयंसेवक भी हैं, कहा कि एक गांधीवादी विचारक के लेख हमारे दैनिक में प्रकाशित हो रहे हैं. उस सम्पादक ने यह भी कहा कि उन गांधीवादी विचारक ने लेख लिखने की बात करते समय यह कहा कि संघ के और गांधीजी के संबंध कैसे थे, यह मैं जानता हूं फिर भी मैं आपको अनजान कुछ पहलुओं के बारे में लिखूंगा. यह सुन कर मैंने प्रश्न किया कि संघ और गांधीजी के संबंध कैसे थे, यह वे विचारक सही में जानते हैं? लोग बिना जाने, अध्ययन किए अपनी धारणाएं बना लेते हैं. संघ के बारे में तो अनेक विद्वान, स्कॉलर कहलाने वाले लोग भी पूरा अध्ययन करने का कष्ट किए बिना या, सिलेक्टिव अध्ययन के आधार पर या एक विशिष्ट दृष्टिकोण से लिखे साहित्य के आधार पर ही अपने 'विद्वत्तापूर्ण' (?) विचार व्यक्त करते हैं. किन्तु वास्तविकता यह है कि इन विचारों का 'सत्य' से कोई लेना-देना नहीं होता है.
महात्मा गांधी जी के कुछ मतों से तीव्र असहमति होते हुए भी संघ से संबंध कैसे थे, इस पर उपलब्ध जानकारी पर नजर डालनी चाहिए. भारत की आजादी के लिए अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष में जनाधार को व्यापक बनाने के शुद्ध उद्देश्य से मुसलमानों के कट्टर और जिहादी मानसिकता वाले हिस्से के सामने उनकी शरणागति से सहमत न होते हुए भी, आजादी के आंदोलन में सर्व सामान्य लोगों को सहभागी होने के लिए उन्होंने चरख़ा जैसा सहज उपलब्ध अमोघ साधन और सत्याग्रह जैसा सहज स्वीकार्य तरीका दिया, वह उनकी महानता है. ग्राम स्वराज्य, स्वदेशी, गौरक्षा, अस्पृश्यता निर्मूलन आदि उनके आग्रह के विषयों से भारत के मूलभूत हिन्दू चिंतन से उनका लगाव और आग्रह के महत्व को कोई नकार नहीं सकता. उनका स्वयं का मूल्याधारित जीवन अनेक युवक-युवतियों को आजीवन व्रतधारी बनकर समाज की सेवा में लगने की प्रेरणा देने वाला था.
सन् 1921 के असहयोग आंदोलन और 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन – इन दोनों सत्याग्रहों में डॉक्टर हेडगेवार सहभागी हुए थे. इस कारण उन्हें 19 अगस्त 1921 से 12 जुलाई 1922 तक और 21 जुलाई,1930 से 14 फ़रवरी, 1931 तक दो बार सश्रम कारावास की सजा भी हुई.
महात्मा गांधी जी को 18 मार्च, 1922 को छह वर्ष की सजा हो गयी. तब से उनकी मुक्ति तक प्रत्येक महीने की 18 तारीख़ 'गांधी दिन' के रूप में मनाई जाती थी. सन् 1922 के अक्तूबर मास में 'गांधी दिन' के अवसर पर दिए गए भाषण में डॉक्टर हेडगेवार जी ने कहा "आज का दिन अत्यंत पवित्र है. महात्मा जी जैसे पुण्यश्लोक पुरुष के जीवन में व्याप्त सद्गुणों के श्रवण एवं चिंतन का यह दिन है. उनके अनुयायी कहलाने में गौरव अनुभव करने वालों के सिर पर तो उनके इन गुणों का अनुकरण करने की ज़िम्मेदारी विशेषकर है." 1934 में वर्धा में श्री जमनालाल बजाज के यहां जब गांधी जी का निवास था, तब पास ही संघ का शीत शिविर चल रहा था. उत्सुकतावश गांधी जी वहां गए, अधिकारियों ने उनका स्वागत किया और स्वयंसेवकों के साथ उनका वार्तालाप भी हुआ. वार्तालाप के दौरान जब उन्हें पता चला कि शिविर में अनुसूचित जाति से भी स्वयंसेवक हैं, और उनसे किसी भी प्रकार का भेदभाव किए बिना सब भाईचारे के साथ स्नेहपूर्वक एक साथ रहते हैं, सारे कार्यक्रम साथ करते हैं, तब उन्होंने बहुत प्रसन्नता व्यक्त की.
स्वतंत्रता के पश्चात् जब गांधी जी का निवास दिल्ली में भंगी कालोनी में था, तब सामने मैदान में संघ की प्रभात शाखा चलती थी. सितम्बर में गांधी जी ने प्रमुख स्वयंसेवकों से बात करने की इच्छा व्यक्त की. उन्हें गांधी जी ने सम्बोधित किया "बरसों पहले मैं वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था. उस समय इसके संस्थापक श्री हेडगेवार जीवित थे. स्वर्गीय श्री जमनालाल बजाज मुझे शिविर में ले गए थे और मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ था. तब से संघ काफी बढ़ गया है. मैं तो हमेशा से यह मानता हूं कि जो भी संस्था सेवा और आत्म-त्याग के आदर्श से प्रेरित है, उसकी ताकत बढ़ती ही है. लेकिन सच्चे रूप में उपयोगी होने के लिए त्यागभाव के साथ ध्येय की पवित्रता और सच्चे ज्ञान का संयोजन आवश्यक है. ऐसा त्याग, जिसमें इन दो चीज़ों का अभाव हो, समाज के लिए अनर्थकारी सिद्ध हुआ है." यह सम्बोधन 'गांधी समग्र वांग्मय' के खंड 89 में 215-217 पृष्ठ पर प्रकाशित है.
30 जनवरी 1948 को सरसंघचालक श्री गुरुजी मद्रास में एक कार्यक्रम में थे, जब उन्हें गांधी जी की मृत्यु का समाचार मिला. उन्होंने तुरंत ही प्रधानमंत्री पंडित नेहरु, गृहमंत्री सरदार पटेल और गांधी जी के सुपुत्र देवदास गांधी को टेलीग्राम द्वारा अपनी शोक संवेदना भेजी. उसमें श्री गुरुजी ने लिखा –
"प्राण घातक क्रूर हमले के फलस्वरूप एक महान विभूति की दुःखद हत्या का समाचार सुनकर मुझे बड़ा आघात लगा. वर्तमान कठिन परिस्थिति में इससे देश की अपरिमित हानि हुई है. अतुलनीय संगठक के तिरोधान से जो रिक्तता पैदा हुई है, उसे पूर्ण करने और जो गुरुतर भार कंधों पर आ पड़ा है, उसे पूर्ण करने का सामर्थ्य भगवान हमें प्रदान करें."
गांधी जी के प्रति सम्मान रूप शोक व्यक्त करने के लिए 13 दिन तक संघ का दैनिक कार्य स्थगित करने की सूचना उन्होंने देशभर के स्वयंसेवकों को दी. दूसरे ही दिन 31 जनवरी 1948 को श्री गुरुजी ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को एक विस्तृत पत्र लिखा, उसमें वे लिखते हैं – " कल चेन्नई में वह भयंकर वार्ता सुनी कि किसी अविचारी भ्रष्ट-हृदय व्यक्ति ने पूज्य महात्मा जी पर गोली चलाकर उस महापुरुष के आकस्मिक असामयिक निधन का नीरघृण कृत्य किया. यह निंदा कृत्य संसार के सम्मुख अपने समाज पर कलंक लगाने वाला हुआ है."
ये सारी जानकारी Justice on Trial नामक पुस्तक में और श्री गुरुजी समग्र में उपलब्ध है.
06 अक्तूबर, 1969 में महात्मा गांधी जी की जन्मशताब्दी के समय महाराष्ट्र के सांगली में गांधी जी की प्रतिमा का श्री गुरुजी द्वारा अनावरण किया गया. उस समय श्री गुरुजी ने कहा – "आज एक महत्वपूर्ण व पवित्र अवसर पर हम एकत्र हुए हैं. सौ वर्ष पूर्व इसी दिन सौराष्ट्र में एक बालक का जन्म हुआ था. उस दिन अनेक बालकों का जन्म हुआ होगा, पर हम उनकी जन्म-शताब्दी नहीं मनाते. महात्मा गांधी जी का जन्म सामान्य व्यक्ति के समान हुआ, पर वे अपने कर्तव्य और अंतःकरण के प्रेम से परमश्रेष्ठ पुरुष की कोटि तक पहुंचे. उनका जीवन अपने सम्मुख रखकर, अपने जीवन को हम उसी प्रकार ढालें. उनके जीवन का जितना अधिकाधिक अनुकरण हम कर सकते हैं, उतना करें.
…..लोकमान्य तिलक के पश्चात् महात्मा गांधी ने अपने हाथों में स्वतंत्रता आंदोलन के सूत्र संभाले और इस दिशा में बहुत प्रयास किए. शिक्षित-अशिक्षित स्त्री-पुरुषों में यह प्रेरणा निर्माण किया कि अंग्रेज़ों का राज्य हटाना चाहिए, देश को स्वतंत्र करना चाहिए और स्व के तंत्र से चलने के लिए जो कुछ मूल्य देना होगा, वह हम देंगे. महात्मा गांधी ने मिट्टी से सोना बनाया. साधारण लोगों में असाधारणत्व निर्माण किया. इस सारे वातावरण से ही अंग्रेज़ों को हटना पड़ा.
…..वे कहा करते थे – "मैं कट्टर हिन्दू हूं, इसलिए केवल मानवों पर ही नहीं, सम्पूर्ण जीवमात्र पर प्रेम करता हूं. उनके जीवन व राजनीति में सत्य व अहिंसा को जो प्रधानता मिली, वह कट्टर हिंदुत्व के कारण ही मिली. ……जिस हिन्दू-धर्म के बारे में हम इतना बोलते हैं, उस धर्म के भावितव्य पर उन्होंने 'फ़्यूचर ऑफ़ हिंदुइज्म' शीर्षक के अंतर्गत अपने विचार व्यक्त किए है. उन्होंने लिखा है – "हिन्दू-धर्म यानि न रुकने वाला, आग्रह के साथ बढ़ने वाला, सत्य की खोज का मार्ग है. आज यह धर्म थका हुआ-सा, आगे जाने की प्रेरणा देने में सहायक प्रतीत होता अनुभव में नहीं आता. इसका कारण है कि हम थक गए हैं, पर धर्म नहीं थका. जिस क्षण हमारी यह थकावट दूर होगी, उस क्षण हिन्दू-धर्म का भारी विस्फोट होगा जो भूतकाल में कभी नहीं हुआ, इतने बड़े परिमाण में हिन्दू-धर्म अपने प्रभाव और प्रकाश से दुनिया में चमक उठेगा."
महात्मा जी की यह भविष्यवाणी पूरी करने की ज़िम्मेदारी हमारी है.
…… देश को राजकीय स्वतंत्रता चाहिए, आर्थिक स्वतंत्रता चाहिए. उसी भांति इस तरह की धार्मिक स्वतंत्रता चाहिए कि कोई किसी का अपमान न कर सके, भिन्न-भिन्न पंथ के, धर्म के लोग साथ-साथ रह सकें. विदेशी विचारों की दासता से अपनी मुक्ति होनी चाहिए. गांधी जी की यही सीख थी. मैं गांधी जी से अनेक बार मिल चुका हूं. उनसे बहुत चर्चा भी की है. उन्होंने जो विचार व्यक्त किए, उन्हीं के अध्ययन से मैं यह कह रहा हूं. इसीलिए अंतःकरण की अनुभूति से मुझे महात्मा जी के प्रति नितांत आदर है."
गुरूजी कहते हैं, "महात्मा जी से मेरी अंतिम भेंट सन् 1947 में हुई थी. उस समय देश को स्वाधीनता मिलने से शासन-सूत्र संभालने के कारण नेतागण खुशी में थे. उसी समय दिल्ली में दंगा हो गया. मैं उस समय शांति प्रस्थापना करने का काम कर रहा था. गृहमंत्री सरदार पटेल भी प्रयत्न कर रहे थे और उस कार्य में उन्हें सफलता भी मिली. ऐसे वातावरण में मेरी महात्मा गांधी जी से भेंट हुई थी.
महात्मा जी ने मुझसे कहा – "देखो यह क्या हो रहा है?"
मैंने कहा – "यह अपना दुर्भाग्य है. अंग्रेज कहा करते थे कि हमारे जाने पर तुम लोग एक दूसरे का गला काटोगे. आज प्रत्यक्ष में वही हो रहा है. दुनिया में हमारी अप्रतिष्ठा हो रही है. इसे रोकना चाहिए."
गांधी जी ने उस दिन अपनी प्रार्थना सभा में मेरे नाम का उल्लेख गौरवपूर्ण शब्दों में कर, मेरे विचार लोगों को बताए और देश की हो रही अप्रतिष्ठा रोकने की प्रार्थना की. उस महात्मा के मुख से मेरा गौरवपूर्ण उल्लेख हुआ, यह मेरा सौभाग्य था. इन सारे सम्बन्धों से ही मैं कहता हूं कि हमें उनका अनुकरण करना चाहिए."
मैं जब वडोदरा में प्रचारक था, तब (1987-90) सह सरकार्यवह श्री यादवराव जोशी का वडोदरा में प्रकट व्याख्यान था. उसमें श्री यादवराव जी ने महात्मा गांधी जी का बहुत सम्मान के साथ उल्लेख किया. व्याख्यान के पश्चात् कार्यालय में एक कार्यकर्ता ने उनसे पूछा कि आज आपने महात्मा गांधी जी का सम्मान पूर्वक जो उल्लेख किया, वह क्या मन से किया था? इस पर यादव राव जी ने कहा कि मन में ना होते हुए भी केवल बोलने के लिए मैं कोई राजकीय नेता नहीं हूं. जो कहता हूं मन से ही कहता हूं. फिर उन्हों ने समझाया कि जब किसी व्यक्ति का हम आदर – सम्मान करते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि उनके सभी विचारों से हम सहमत होते हैं. एक विशिष्ट प्रभावी गुण के लिए हम उन्हें याद करते हैं, आदर्श मानते हैं. जैसे पितामह भीष्म को हम उनकी कठोर प्रतिज्ञा की दृढ़ता के लिए अवश्य स्मरण करते हैं, परंतु राजसभा में द्रौपदी के वस्त्रहरण के समय वे सारा अन्याय मौन देखते रहे, इसका समर्थन हम नहीं कर सकते हैं. इसी तरह कट्टर और जिहादी मुस्लिम नेतृत्व के संबंध में गांधी जी के व्यवहार के बारे में घोर असहमति होने के बावजूद, स्वतंत्रता आंदोलन में जनसामान्य को सहभागी होने के लिए उनके द्वारा दिया गया अवसर, स्वतंत्रता के लिए सामान्य लोगों में उनके द्वारा प्रज्ज्वलित की गई ज्वाला, भारतीय चिंतन पर आधारित उनके अनेक आग्रह के विषय, सत्याग्रह के माध्यम से व्यक्त किया जन आक्रोश – यह उनका योगदान निश्चित ही सराहनीय और प्रेरणादायी है.
इन सारे तथ्यों को ध्यान में लिए बिना संघ और गांधी जी के संबंध पर टिप्पणी करना असत्य और अनुचित ही कहा जा सकता है.
ग्राम विकास, सेंद्रिय कृषि, गौसंवर्धन, सामाजिक समरसता, मातृभाषा में शिक्षा और स्वदेशी अर्थ व्यवस्था एवं जीवन शैली ऐसे महात्मा गांधी जी के प्रिय एवं आग्रह के क्षेत्र में संघ स्वयंसेवक पूर्ण मनोयोग से सक्रिय हैं. यह वर्ष महात्मा गांधी जी की 150 वी जयंती है. उनकी पावन स्मृति को विनम्र आदरांजलि.
डॉ. मनमोहन वैद्य
सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ